Wednesday 23 May 2018

"पढ़ने का शौक" -सुलेखा पाण्डे


बहुत छोटी सी थी मैं, लगभग साढ़े तीन वर्ष की, घर हमारा शिवाजी पार्क से मात्र 20 क़दम की दूरी पर है. बहुत बड़े चौराहे को पार करते ही एक बुक स्टॉल था, काफ़ी बड़ा सा.हिंदी, अंग्रेज़ी, मराठी, गुजराती अख़बार, पत्र पत्रिकायें, कॉमिक्स की एक रंग बिरंगी दुनिया थी मानो.
घर में सबसे छोटी होने की वजह से सबसे लाडली थी मैं, रोज़ पिता की उंगली पकड़ती, और उनके जाने से पहले मैं चप्पल पहन कर तैयार हो जाती.
बाहर निकलते, तो पहला काम होता आइस क्रीम लेने का, तब क्वालिटी की आइस क्रीम प्लास्टिक की गेंदों में आती, ढक्कन षट्कोणीय/ अष्टकोणीय होते, इसी तरह से ऑरेंज टॉफियाँ भी गेंदों में आतीं.
मैंने ख़ज़ाना जमा कर रखा था.
फिर आगे बढते तो बुक स्टॉल पर जाते. घर पर Times of India और नवभारत टाइम्स नियमित रूप से आते थे, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान, टाइम मैगज़ीन, धर्मयुग, सारिका.
मेरा बाल मन मोहित होता नन्दन, चम्पक, पराग, चन्दामामा, कुमार (मराठी), किशोर (मराठी), अमर चित्र कथा पर.
मैं ज़िद कर के ख़ूब सारी पत्रिकायें ख़रिदवा लेती, तब तक अक्षर से भेंट नहीं थी, किन्तु रंग बिरंगे चित्र सम्मोहित करते थे.
घर आती और बड़े भाई बहनों से चिरौरी करती कि पढ़ कर सुना दो.
दीदी मुझे बड़े ही धैर्य के साथ सब सुनातीं. यह करते करते कब अक्षरज्ञान हुआ याद नहीं. कब ABCD सीखी, कब सीखी बारहखड़ी, वर्णमाला और मराठी का ग म भ , जिस से मराठी वर्णमाला शुरू होती है, याद ही नहीं.
5 वर्ष की उम्र में सीधे पहली कक्षा में प्रवेश पाया. तब तक उम्र से अधिक जान चुकी थी और गणित को छोड़ किसी विषय ने दुःखी नही किया.
          
और बड़ी हुयी तो ख़ुद पढ़ने लगी. राह देखती कि कब नया पराग, नन्दन, चम्पक इत्यादि आयें और में दौड़ कर ताई जी से पैसे लेकर भागती ख़रीदने.
कॉमिक्स में सबसे प्रिय रहा फैंटम. इतना कि फैंटम मेरा पहला प्यार था. मैं उसी दुनिया में खोयी रहती. थे तो मेंड्रेक, लोथार भी, किन्तु फैंटम वाली बात न थी.
में अपने पिता से कहती, चाचा, मैं फैंटम से शादी करूँगी. वे मुझे चिढ़ाते, कि उसकी शादी तो डायना पामर से हो चुकी है, मैं ख़ूब दुःखी हो जाती और सोचती कि यह डायना नहीं डायन है.
धीरे धीरे वक़्त बीता, किताबें मेरी हमराज़, हमक़दम, हमराह, हमनवा बन गयीं.
किशोरावस्था में Mills & Boon, The Famous Five, Faster Fene (मराठी) Agatha Christie, Sherlock Holmes, Fairy Tales और भी बहुत कुछ.
माता की वजह से उत्तम पुस्तकों की विरासत पायी. प्रेमचंद से लेकर बांग्ला साहित्य, और बड़े पिता जी की वजह से रूसी साहित्य पढ़ा.
मेरी बड़ी दीदी जो भी पढ़तीं, वह मैं भी पढ़तीऔर आत्मसात कर लेती.
उनकी भी छाप स्पष्ट पड़ी.
सुयोग ऐसा रहा कि पढ़ते पढ़ते ही शादी हुयी और ससुराल में पति और सास ससुर तीनों उत्तम साहित्यिक अभिरुचिसम्पन्न मिले.
यहां पर मेरे पढ़ने के जुनून को मानो पर मिल गये.
पति ने परिचय कराया इंग्लिश बेस्ट सेलर्स की दुनिया से. Arthur Hailey, John Steinbeck, Harold Robbins, Sidney Sheldon, Jeffrey Archer, Danielle Steel, Nora Roberts, Ken Follett, Dan Brown, Dr. Brian Weiss, David Baldacci, John Grisham, Dr. James Harriot, J.K.Rowling, Jackie Collins, David Koontz, Tolstoy, JRR Tolkein, Arthur Hailey, Jacqueline Susanne और भी अनगिनत.
हिंदी में अब मुझे याद ही नहीं कि मैंने किसी भी ख्यातिप्राप्त लेखक को छोड़ा हो वही हाल मराठी का है.
बांग्ला, गुजराती, उर्दू, क्षेत्रीय भाषायें सबके अनुवादित उपन्यास पढ़े.
कुछ वर्ष पहले हैरी पॉटर की पहली किताब पढ़ी, उसके बाद आख़िरी किताब ख़रीदने लखनऊ यूनिवर्सल के सामने बारिशों में भीगी.
किताबों से लगाव जन्मजात होता है, इसे आप अचानक से पैदा नहीं कर सकते, ज़बरदस्ती करेंगे भी, तो जल्द ऊब जायेंगे.
बच्चों को कोर्स के अलावा दूसरा साहित्य दें, असल ज़िन्दगी कोर्स की पुस्तकों से बाहर है.
मुझे ख़ुशी है कि मेरे माता पिता और सास ससुर ने मुझे कभी पढ़ने से नहीं रोका और मुझे जीवन में सबसे अच्छे मित्र मिले. आज मेरे घर की लाइब्रेरी में ही कम से कम 2000 पुस्तकें हैं, जिनमें कुछ अलभ्य ग्रंथ हैं और बहुत कुछ...
कल से पसंदीदा किताबों की श्रृंखला शुरू करने से पहले, रीडिंग हिस्ट्री ...
*** 

https://www.facebook.com/sulekhapande?hc_ref=ARTUxRrhhQSWRZgbmb0sTSAv_Xe7IWQ-LeNo5Jq2QKRtN5km2V9JSG2-3-_e5QcEO1Y

बचपन का वो ‘मूर्ख मौलाना’- दाराब फ़ारूक़ी



(भूमिका
गुरुवार को भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा रिपब्लिक टीवी न्यूज चैनल पर बैठे बाकी हिंदुओं पर चिल्ला रहे थे, ‘आप लोग सूडो हिंदू हो’, ‘आप लोगों को हिंदू बोलने में शर्म आती है’,‘नकली हिंदू’.
और फिर घनश्याम तिवारी जो कि समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता हैं मौलाना घनश्यामबुला दिए जाते हैं. मतलब तुम तो अब मुसलमान हो गए हो घनश्याम. एक सेकंड को मुझे लगता है, मैंने ये कहीं देखा है. पहले भी कहीं देखा है.
और फिर मेरे दिमाग में एक बचपन का मंजर घूम गया.)

होली का दिन था. हम सब 8-13 साल की उम्र के थे. हम जहां रहते थे वहां आधे बच्चे हिंदू थे और आधे मुसलमान.
शायद हिंदू ज्यादा थे पर पता नहीं चलता था. शायद हम अपने अपने त्योहारों पर ही ज्यादा हिंदू या मुसलमान लगते थे. क्योंकि बाकी वक्त हम गिल्ली डंडा, कंचे, सितोलिया, छुपन छुपाई, क्रिकेट या पतंगबाजी ही करते थे और इनमे से कोई भी खेल हिंदू या मुसलमान नहीं है.
खैर, उस होली के दिन, जैसा हर होली पर होता था, पानी बैन हो गया. 2-3 घंटे की होली के बाद सारे घरों की टंकियां खाली हो गई.
अब बस इतना पानी बचा था कि इमरजेंसी में लोग अपने कूले धो सकें. पानी अब शाम को 4-5 बजे आना था और अभी तो दोपहर के 12 भी नहीं बजे थे.
तभी किसी ने आईडिया दिया कि पास वाली मस्जिद की टंकी लबालब भरी है. हिंदू बच्चों ने डिमांड की, तुम लोग मुसलमान हो बाल्टियां मस्जिद से भर लाओ.
मस्जिद में जाने के चार दरवाजे थे. तीन एक तरफ और एक पीछे से. पीछे वाला हमेशा बंद रहता था और सिर्फ नमाज के वक्त खुलता था. आगे वाले तीन दरवाजों में दो सीधे वजूखानों में जाते थे.
पर दोनों वजूखाने भी अलग थे. एक पुराना था और एक नया. पुराने वाले में पुराने नल थे, तो उनमे से पानी धीरेधीरे आता था. नए वाले वजूखाने में नए नल थे. तो पानी बिलबिला के आता था.
पर ये दोनों दरवाजे भी सिर्फ नमाज के वक्त खुलते थे. बस बीच वाला बड़ा दरवाजा हमेशा खुला होता था. 12 अभी बजे नहीं थे. हमें पता था कि मस्जिद के मौलाना इस टाइम पर थोड़ा सा उनियाया (नींद में) होता है.
सुबह फजर की नमाज की अजान देने आखिर साढ़े तीन से चार बजे उठाना पड़ता है. तो प्लान ये बना कि कोई मेन दरवाजे से अंदर जाकर नए वजूखाने का दरवाजा खोल देगा क्योंकि नया वजूखाना वैसे भी हमारी तरफ था इसलिए वहां से पानी चुराने में आसानी थी.
खैर, हमेशा की तरह मुझे ये जिम्मेदारी सौंपी गई. मैं होली के रंगों में रंगा हुआ चुपके से अंदर घुसा. मेरी सांस धौंकनी जैसी चल रही थी. बाकी सारे बच्चे, कमांडो की तरह मस्जिद के बाहर छुपे हुए.
मैं मस्जिद में दबे पांव चलता हुआ वजूखाने की तरफ बढ़ा तभी मुझे कहीं दरवाजे के चरमराने की आवाज आई. मस्जिद में एक कमरा था जिसमे मौलाना रहते थे. पर अब मैं मस्जिद के बिल्कुल बीच था.
हर एक दरवाजा करीब-करीब मुझसे बराबर की दूरी पर था. मुझे कुछ समझ नहीं आया तो वहीं बीच मस्जिद में जमीन पर लेट गया और अपने आप को मस्जिद के फ्लोर पैटर्न में छुपाने की कोशिश करने लगा.
कुछ 10 सेकंड में मुझे अहसास हुआ कि दरवाजा खुला नहीं है बंद हुआ है. मतलब मौलाना अंदर कमरे में है. फिर क्या था मैं उठ के भागा और वजूखाने में घुस गया.
पर दरवाजे पर पहुंचते ही मुझे अहसास हुआ कि कुंडी में जंग लगा हुआ है. मतलब ये खुलते ही इतनी आवाज करेगा.
दरवाजे के उस तरफ दो बच्चे थे. जो मेरी आवाज सुन सकते थे. मैंने उनसे दरवाजे के उस पार बुदबुदाते हुए कहा कि यासीन भाई, जिनकी पास ही मैकेनिक की दुकान थी.
उनकी दुकान से बाहर हमेशा गंदे ऑयल में डूबे कपड़े पड़े होते थे. वो उठा लायें. मैं उन्हें इस कुंडी पर रगड़ कर इसका जंग दूर कर दूंगा और फिर ये कुंडी बिना आवाज के खुल जाएगी.
कुछ ही देर में दरवाजे के नीचे से ऑयल में लिपटे वो कपड़े, लिफाफों की तरह आने लगे. मैंने उन्हें कुंडी पर मलमल कर कुंडी को चिकना कर दिया. फिर क्या था कुंडी मक्खन की तरह खुल गयी.
दरवाजा खुलते ही मेरे सामने तीन बाल्टियां आ गईं. नल ऐसा चला कि पहली बाल्टी 30 सेकंड में भर गई. हमारी आखें तो हैरत से फैल गईं.
अब ये बात सुन कर आप हैरत मत करिए क्योंकि ये वो जमाना था जब कोई भी बाल्टी किसी भी नल से भरने में कम से कम 10 मिनट लेती थी.
फिर क्या था, हमारी तो लाटरी लग चुकी थी और हमारे दिलों में लालच घर कर चुका था. डिसाइड ये हुआ कि क्यों न लोहे वाली बड़ी टंकी भर दी जाए जो कि अहाते के बीच रखी थी.
फिर क्या था, सारे लग गए इस काम में. अगले 20 मिनट में अहाते की टंकी हमने भर दी और उसके अगले 20 मिनट में खाली भी कर दी.
हमें अब और पानी चाहिए था. किसी भी कीमत पर. हम कोई भी खतरा उठाने को तैयार थे.
मैं हमेशा की तरह बाल्टी लेकर जैसे ही वजूखाने के अंदर घुसा, दरवाजे के पीछे मौलाना मेरा इंतजार कर रहा था.
उसने पीछे से मेरी गुद्दी पकड़ ली. (यहां थोडा फ्लैश कट मरना पड़ेगा) हुआ कुछ यूं कि जब मैं रंगा हुआ मस्जिद में घुसा तो अपने रंगे हुए पैरों की निशान छोड़ता हुआ निकला.
फिर जहां फ्लोर पर लेटा था, वहां भी मैंने अपने निशान छोड़े. मौलाना जब उठा होगा तो उसे सीधे सारा माजरा समझ आ गया होगा. और वो मेरा दरवाजे के पीछे इंतजार कर रहा था.
हालांकि उसने मुझे गुद्दी से पकड़ लिया था. मैं सर से लेकर पैर तक काला-हरा-लाल-नीला-जामुनी-पीला रंगा हुआ था. उसने मुझे गुद्दी से ऐसे पकड़ा जैसेकि मरे बदबूदार चूहे को चुटकी से दुम से पकड़ते हैं. मुझे तभी आईडिया आया. मैं मौलाना से गीला रंगा हुआ चिपट गया.
मेरा रंग अब मौलाना के कपड़ों पर चढ़ने लगा था. मौलाना ने अपने आप को बचाने के चक्कर में मुझे धक्का दिया और मैं वहां से भागा.
पर तभी एक लौंडे की आवाज आई, ‘ये तो शमीम का लौंडा है.किसी ने मुझे मस्जिद में पहचान लिया था. फिर क्या था मौलाना मेरे पीछे भागा, पर अब शमीम का लौंडाकिसी के बाप के हाथ नहीं आने का था. एक सेफ डिस्टेंस पर पहुंचने पर मैं रुक गया. और फिर मौलाना चिल्लाने लगा.
तू मुसलमान नहीं है, तू मुसलमान हो ही नहीं सकता.शायद उसको सूडोलफ्ज पता नहीं था वरना वो उसका इस्तेमाल यहां जरूर करता.
तुझे अपने आप को मुसलमान बोलने में शर्म आनी चाहिए’, ‘तू बाल कटा के चोटी रख ले’, वगैरह वगैरह. वो काफी देर चिल्लाया पर मैं हंसता रहा, पर ना तब मेरे कान पर जूं रेंगी थी और न आज घनश्याम तिवारी के रेंगनी चाहिए.

(उपसंहार
तो संबित पात्रा, आपको टीवी पर चिल्लाते हुए देखते आज वो मौलाना बड़े याद आये. वो तब धर्म के ठेकेदार बने हुए थे. और आप आज.
अब अगर बातों पर जाओं, तो आपको मौलाना संबितबुलाना चाहिए क्योंकि उस मौलाना जैसी ब्लडी फूलवाली बातें आप कर रहे हैं. (हमारे हिंदी मीडियम माहौल में ब्लडी फूल सबसे बड़ी बेइज्जती हुआ करती थी). आप बांट रहे हो धरम के आधार कार्ड.
हमारी मेहनत और प्लानिंग देखी, होली के पानी का इंतजाम करने के लिए. साथ में होली खेलने के लिए. ये एक मुसलमान बच्चा हिंदुस्तान में कर रहा था, होली के लिए. और ये ही हिंदुस्तान है.
हे मंडूक नरेश संबित (क्योंकि आप चाल ही नहीं, ढाल में भी कुछ ऐसे दिखते हैं), न वो मौलाना मुझे होली खेलने से रोक पाया, न ही मेरा बाप (हालांकि मेरे बाप ने कभी रोका नहीं, पर बोलने में ज्यादा असरदार लगता है) तो आप किस खेत के कद्दू हो.
ये देश न किसी के सर्टिफिकेटों पर चला है, न चलेगा. जैसे मैं उस दिन उस मौलाना पर हंस रहा था, कुछ दिनों में लोग तुम पर हंसेंगे.
क्योंकि तुम जैसे लोग सिर्फ मजाक हैं. बस फर्क ये है कि ये मजाक अभी देश के साथ हो रहा है. पर जैसा मजाक के हमेशा हुआ है, वो ही तुम्हारे साथ होने वाला है. मजाक आखिर में बस, मजाक बन के रह जाता है.)

टीवी पर संबित को देखा तो बचपन का वो मूर्ख मौलानायाद आ गया
By दाराब फ़ारूक़ी on 31/03/2018
(दाराब फ़ारूक़ी पटकथा लेखक हैं और फिल्म डेढ़ इश्किया की कहानी लिख चुके हैं.)
 *** 

चूँकि सोशल-मीडिया पर दाराब फ़ारुक़ी साहब का कोई व्यक्तिगत प्रोफाइल नजर नहीं आया, इसलिए 'द वायर' का स्क्रीनशॉट प्रस्तुत किया जा रहा है, जहाँ उनका उपर्युक्त आलेख प्रकाशित हुआ था- 

 
 

"अमीन सायानी...बचपन की आवाज़ का खामोश होना"- राजेश ज्वेल

  उज्जैन के पटनी बाजार में तोतला भवन की पहली मंजिल का मकान और गोदरेज की अलमारी के ऊपर रखा ट्रांजिस्टर... हर बुधवार की सुबह से ही ट्रांजिस्टर...