Saturday, 21 April 2018

"एक था रेलवे स्टेशन"- दिनेश चौधरी


बात थोड़ी संजीदा है। भारतीय रेल से हम सबका थोड़ा-बहुत लगाव है। कुछ भावनात्मक रिश्ता जैसा भी है। बचपन में हम सब कतारबद्ध होकर रेल का खेल खेलते थे। अगूंठे और उँगलियों के बीच समकोण बनाकर सीटी बजाई जाती थी। छोटी जगहों पर तो आज भी लोग नियमित रूप से टहलने के लिए स्टेशन ही जाते हैं। कस्बों में कुछ लोग रेल के बड़े जानकारहोते हैं। उनके पास रेल संबंधी अद्यतन सूचना होती है और वे इसे बड़े गर्व के साथ प्रस्तुत करते हैं। कुछ आवाज सुनकर बता देते हैं कि फलानी ट्रेन है। कुछ ऐसे भी होते हैं, जिन्हें अप और डाउन का अंतर मालूम नहीं होता और इसे लेकर वे हमेशा खीझते रहते हैं। कुछ मित्रों को रेल के डिब्बे में चढ़ते ही जोरों की भूख लग आती है। कुछ निहायत चुप्पे होते हैं- मेरी तरह और कुछ जन संपर्क के लिए ही यात्रा करते हैं। उन्हें देखकर लगता है कि सहयात्री से बड़ा उनका सगा कोई नहीं है, पर जब स्टेशन आता है तो बिना दुआ-सलाम के उतर जाते हैं। कुछ को अपनी सीट की थोड़ी जगह देते हुए ऐसा वैराग्य भाव जागता है, जैसा बहादुर शाह जफ़र को दिल्ली छोड़ते हुए भी महसूस नहीं हुआ होगा। कुछ सीट के लिए लड़ाई करने को अपना धर्म समझते हैं और सीट वैसे ही मिल जाए तो उन्हें बड़ी निराशा होती है।
जब मैं छोटे गाँव से छोटे कस्बे में आया था तो घर में सिगड़ी जलाने की परम्परा थी। इसमें लगने वाला कोयला मालगाड़ी के डिब्बों से उतारकर लाया जाता था और तब इसे चोरी नहीं समझी जाती थी। इस काम में कुछ जरूरतमन्द महिलाएं लगी होती थीं और बड़े बाबूनिःस्वार्थ भाव से उनकी मदद भी करते थे। यह एक आपसी समझदारी हुआ करती थी कि दो-चार बूंदों के छिटक जाने से समुद्र नहीं सूख जाएगा। यह एक तरह से रसोईघर के लिए मिलने वाली अनऑफिशियलसब्सिडी भी थी, जिसे वक्त ने अपने मन की बात कहकर सरेंडर करवा लिया। तब शाम के वक्त किसी नए आदमी को रेलवे कालोनी का पता नहीं पूछना पड़ता था और सिगड़ी से उठने वाले धुंए की सघनता से वह इसका सुराग पा लेता था।
कस्बे के उत्साही लोग गर्मियों में स्टेशन में प्याऊ भी लगाते थे। बोतलबन्द पानी का चलन नहीं था। रेत पर रखे बड़े-बड़े मटके लाल रंग के कपड़े से ढंके होते थे और यह साबित करते थे कि परोपकारी लोग जाने-अनजाने कम्युनिस्ट होते हैं। कपड़ों को थोड़ी-थोड़ी देर में पानी छींटकर भिगो लिया जाता। मटकों के पीछे एक बैनर में प्रायोजक का नाम होता था जो अमूमन मारवाड़ी व्यापारी संघया सिंधी व्यापारी संघका होता। कभी-कभी ये प्लेटफॉर्म का बँटवारा कर लेते थे और बेहतर सेवा के लिए इनके बीच एक अघोषित स्पर्धा-सी चलती थी। जैसे ही कोई गाड़ी आकर खड़ी होती युद्ध स्तर पर जल वितरण का कार्य शुरू हो जाता। कभी किसी नवयुवक को अनायास किसी सुंदर-सुमुखी कन्या को जल-प्रदाय का सुअवसर हाथ लग जाता तो वह एकदम से तर जाता था और बाद में आने वाली गाड़ियों में न सिर्फ और अधिक उत्साह से जल-वितरण करता, बल्कि स्वेच्छा से अगली गाडी के आने तक ओवरटाइम के लिए भी तैयार हो जाता था। कुछ आगे चलकर सिंधी व्यापारी संघका बैनर सिंधी यूथ एसोसिएशनके बैनर में तब्दील हो जाता है और स्वंयसेवकों की जगह एक पेड-वर्करतैनात मिलता है जो बड़े बेमन से यात्रियों को पानी पिलाता है और यात्री कहते हैं कि यहाँ पहले मिलने वाला पानी बड़ा मीठा हुआ करता था! मीठे पानी की झील में खारापन आने का सबब हमेशा साइंस की किताबों में नहीं ढूँढा जा सकता और न ही यह बात इल्म वालों को समझाई जा सकती है।
स्टेशन में प्रवेश के लिए प्लेटफार्म टिकिट का खरीदना वैधानिक रूप से वर्जित था। एक बार मुसवा गोविन्द के चाचा जब शहर से आए थे और उन्होंने टिकिट-बाबू के पास जाकर प्लेटफार्म टिकिट माँगा था तो बाबू ने चाचा को ऐसी निगाह से देखा, जिसकी चुभन वो आज तक महसूस करते हैं। प्लेटफार्म टिकिट खरीदने के इस असफल प्रयास का किस्सा कस्बे में कई दिनों तक लतीफे की तरह चलता रहा और यह अपने किस्म का पहला और अंतिम वाकया था। इतिहास के प्रति लापरवाह भारत सरकार इस ऐतिहासिक तारीख को अपने शासकीय अभिलेखों में दर्ज करने से चूक गयी और सयाने लोग बताते हैं कि मुसवा गोविन्द के चाचा इस घटना से इतने आहत हुए कि दोबारा कभी पलटकर यहाँ नहीं आए।
लटदार बालों वाली पगलिया बाई और गांजे वाले बाबा का स्थायी निवास भी यहीं हुआ करता था। तब के बाबा आज के बाबाओं की तरह कारपोरेट नहीं थे और दुनिया-जहान को ठेंगे पर रखकर सिर्फ अपनी चिलम की परवाह करते थे। नारियल की रस्सी से बना गोला जब चिलम खेंचने के दौरान लाल-सुर्ख होकर सुलगता था तो ऐसा महसूस होता था मानों बाबा दुनिया-ए-फ़ानी के खिलाफ अपनी सदियों से सिंचित नफरत के साथ फैसलाकुन जंग का ऐलान कर रहे हों। घर में बीवी से रूठ जाने वाले पति को स्टेशन की बेंच में ही शरण मिलती और वह बगैर किसी रोक-टोक के घण्टों बैठा रह सकता था। कभी आस-पास के गाँव से दो-तीन बैलगाड़ियों का काफिला आता तो रैन-बसेरा यही हुआ करता था और मुस्टंड बैल घाघ टिकिट चेकर की तरह मुख्यद्वार पर तैनात रहते और हर आने-जाने वाले की कड़ी निगरानी करते। साउथ केबिन की ओर ड्यूटी बदलकर आने-जाने वाले हर स्विचमेन; और एक झोले में केरोसिन का डिब्बा लादकर देर शाम को सिग्नल की दियाबत्ती करने वाले पोर्टर को सलाम ठोंकने वाले बंजारों के परिवार को मैंने कई-कई दिन तक यहाँ डेरा डाले हुए देखा है। शाम को सुलगती आग में हंड़िया को उलटकर थापी गई मोटी -मोटी रोटी या पेशेवर हाथों से बनाई गई गोल गकड़ियाँ जब धीमे-धीमे सिंकती थी, तब कुछ देर रुककर मैं इन्हें बड़ी दिलचस्पी से देखता था और मेरे दांतों के अंदरुनी हिस्से ने कई बार अपनी कल्पनाओं में बाहर से कड़क और अंदर खूब गर्म पर हल्के कच्चे आटे को चिपकता-सा महसूस किया है।
उन दिनों जब स्ट्रीट फ़ूड और महंगे रेस्तराओं का चलन नहीं था, जुबान का जायका बदलने के लिए स्टेशन ही मुफीद जगह थी और महज इसी उद्देश्य के लिए रेल-यात्राओं की प्रतीक्षा रहती थी। उत्कल एक्सप्रेस से बिलासपुर से दिल्ली जाते हुए खोडरी स्टेशन में कुल्हड़ वाली चाय और पेंड्रारोड में हरे पत्ते के दोनों में समोसा खाना अनिवार्य था। गोंदिया-जबलपुर छोटी लाइन के शिकारा स्टेशन में भाजी-बड़े बड़े मशहूर हुआ करते थे और रेलवे के गार्ड-ड्राइवर की कैंटीन वालों के साथ बड़ी आत्मीयता हुआ करती थी। इनके आगमन पर वह अलग सेस्पेशल चायचढ़ा दिया करता था जो निःशुल्क होती थी। चाय चढ़ाने का असल उद्देश्य उन्हें फँसाकर गाड़ी को ऑउट ऑफ़ कोर्सरोके रहना होता था ताकि सारा माल उठ जाए। ये बात वे सारे लोग जानते थे और यह भी जानते थे कि दूसरा भी यह जानता है, पर इस प्रसंग की सारी ख़ूबसूरती जान-बूझकर अनजान बने रहने में थी। चक्रधरपुर रेलवे स्टेशन के पार होते ही खराब से खराब चायबेचने वाले आ धमकते। खराब चायएक ब्रांड हुआ करती थी जो वास्तव में बहुत अच्छी होती थी। कालांतर में दीगर हलकों की तरह यहाँ भी नैतिकता का पतन हुआ औरखराब चायके नाम पर सचमुच ही खराब चाय मिलने लगी और जब सवारी की शिकायत मिले तो बताया जाने लगा कि हुजूर! हमने तो पहले ही कहा था!!झाल-मुड़ी का तीखा स्वाद अलबत्ता अब तक बरकरार है। बहुत से मारवाड़ी मित्र घर आकर इस डिश को बनाने का असफल प्रयास कर चुके हैं, क्योंकि वे अमूमन अपने घरों मेंमीठा तेलखाते हैं, जबकि झालमुड़ी का असल फ्लेवर कड़वेसरसों के तेल से आता है। मुम्बई के पहले इगतपुरी में, जहाँ एसी -डीसी ट्रैक्शन में परस्पर बदलाव होता है, खूब तीखी मिर्च वाला वड़ा-पाव पानी की अग्रिम व्यवस्था कर लेने की वैधानिक चेतावनी दिए बगैर इतने प्यार से खिलाया जाता है कि उसकी याद अगले दिन तक आती है। अरबी के पत्तों में बेसन लपेटकर, भाप से उबालकर और फिर तलकर परोसा जाने वाला व्यंजन मुझे सिर्फ गुजरात के स्टेशनों में नजर आया जो घर में मेरी पसंदीदा डिश हुआ करती थी। इसे खाते हुए हर बार मुझे यह ख्याल आता कि इसकी पैकेजिंग कर यदि इसे विदेशों में भेजा जाए तो कारोबार को खूब फैलाया जा सकता है।
जब कोई फ़िल्म हिट हो जाती थी और कई दिनों बाद उसकी पेटियाँ कस्बे में पहुँचती थी तो उसका सुराग लग जाने पर उनकी अगवानी के लिए अच्छी-खासी भीड़ जुटती थी। स्टेशन की दीवार का एक कोना आने वाली फ़िल्म के पोस्टर के लिए सुरक्षित रहता था और ये पोस्टर कई-कई दिनों तक लगे होते थे क्योंकि तब नई फ़िल्में आज की सरकारी योजनाओं की तरह पहले महानगर, फिर बड़े नगर, फिर प्रदेशों की राजधानी, फिर जिला मुख्यालय और अंत में छोटे कस्बों- गाँवों में पहुंचती थी। इन पोस्टरों के बदलने के लिए भी लम्बे समय तक इंतज़ार करना पड़ता था और कभी-कभी जब बर्दाश्त की हद पार हो जाती तो कोई तरक्कीपसंद, इंकलाबी नौजवान पोस्टर में चस्पां हीरोइन पर अपनी मोहब्बत का इजहार कर देता और लगे हाथ मूँछमुंडे हीरो के होंठों के ऊपर कृत्रिम मूँछे बनाकर नायिका को यह गुप्त सन्देश भी भेज देता की असल मर्द दरअसल वही है। फ़िल्में देखना अब नहीं के बराबर है पर उन दिनों की फ़िल्में रेल के बगैर पूरी नहीं होती थी। पाकीज़ा में यूँ ही कोई मिल गया थामें रेल की सिटी को भला कोई कैसे भूल सकता है। गुलाम मोहम्मद या नौशाद साहब ने बड़ा कमाल किया है। रेल के इंजिन की सीटी का ऐसा संगीतात्मक प्रयोग अप्रतिम है। धर्मेन्द्र-शत्रुघन सिन्हा की दोस्त फ़िल्म का एक पूरा गाना रेल को समर्पित है। द बर्निंग ट्रेनरेल पर ही बनी थी और इतनी अतार्किक थी कि अग्रज लेखक मनहर चौहान ने नवभारत में एक टिप्पणी लिखी थी, ‘द टर्निंग ब्रेन। रोटी फ़िल्म में हीरो राजेश खन्ना सह-नायक को ट्रेन से धकेल देता है और पश्चाताप की आग में जलता है। जंजीर का सहनायक प्राण लोकल ट्रेन में एक गवाह को लेकर जाता है, जिसकी हत्या हो जाती है।
शोले फ़िल्म में तो कुछ शॉट कमाल के हैं। गब्बर जेल से भागकर सीधे ठाकुर के घर पहुँचता है और कत्ले-आम मचाता है। आखिरी गोली की आवाज के साथ ठाकुर की गाड़ी गाँव पहुंचती है, पर कोई रिसीव करने वाला नहीं है। ठाकुर सिर उठाकर आसमान की और देखता है। बादल नहीं हैं, बारिश का अंदेशा नहीं है, फिर भी कोई नहीं आया? इंजिन धुंआ उड़ाता हुआ निकल जाता है, जैसे प्राण-पखेरू उड़ गए हों। और डाकुओं से लड़ाई का तो बहुत लम्बा दृश्य है। यह सूची बहुत लंबी है। अनगिनत किस्से और कहानियाँ हैं।
रेल से भारत की आजादी का अटूट रिश्ता रहा है। गाँधीजी को दक्षिण अफ्रीका के पीटर मेरिट्जबर्ग स्टेशन में पहले दर्जे का टिकिट होते हुए भी सामान सहित फेंक दिया गया था। कड़ाके की ठण्ड में स्टेशन के वेटिंग हॉल में उन्हें रात गुजारनी पड़ी थी। अपमान, ग्लानि, हताशा, क्रोध आदि के न जाने कितने मनोभाव हृदय को चीरकर आर-पार गुजरे होंगे। मुझे किसी अभिनेता को परखना हो तो मैं इसी दृश्य को दोहराने को कहूँगा। उन्होनों अपमान को चुपचाप पिया नहीं। क्रोध को भी ठंडा होने नहीं दिया। चुपचाप वापस नहीं लौट आए। शिकायत दर्ज की। अखबार को चिठ्ठी भेजी। बतर्ज हजारी प्रसाद द्विवेदी, क्रोध का अचार-मुरब्बा बनाकर उसे पोसते रहे और एक दिन फिरंगियों को उसी तरह आधी रात को सामान सहित उठाकर बाहर फेंक दिया। पर वे स्वेच्छा से खुद तीसरे दर्जे के डिब्बे में सफर करने लगे थे। भारतीय रेल ने तीसरे दर्जे के डिब्बे को बदलकर जनरल डिब्बा कर दिया और इसमें यात्रा करने से नरक-यात्रा का पुण्य हासिल होने लगा। गाँधी जी जिन्हें देश का अंतिम आदमी कहते थे, उन्हें इसी डिब्बे में पाया जा सकता है। खुद गाँधी आज होते तो हरगिज इस डिब्बे में यात्रा नहीं करते और बहुत जरूरी होने पर पदयात्रा ही कर लेते।
दीवार फ़िल्म के एक दृश्य में ट्रेन में ही एक लावारिशलाश मिलती है। इंस्पेक्टर की भूमिका वाले शशि कपूर को जब इत्तिला दी जाती है तो पता चलता है की सत्येन कप्पू का पार्थिव शरीरलावारिश नहीं है। वे उनके पिता हैं, जो एक दिन घर छोड़कर चले गए थे। इन्हीं हालात में राजेश खन्ना पर एक बहुत ही खूबसूरत गीत जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मुकाम, वो फिर नहीं आतेट्रेन में फिल्माया जाता हैं। यानी बेघर हो जाने वालों का घर भारतीय रेल ही होता है। घर से बाहर एक ऐसा घर जो जेब में एक पाई न होने पर भी मिल सकता है और जहाँ किसी तरह जी लेने की सारी संभावनाएं जिंदा होती हैं। अनब्याही माँएं शिशुदान के लिए यहाँ का रूख इसी उम्मीद से करती हैं कि किसी न किसी तरह उसकी कश्ती किनारे लग जाएगी। लावारिश बच्चों के लिए काम करने वाली एक संस्था के वेब साइट रेलवे चिल्ड्रनसे पता चलता है कि देश में हर 5 मिनट बाद किसी न किसी रेलवे स्टेशन में एक लावारिश बच्चे का आगमन होता है और वे पिछले एक साल की अवधि में ऐसे कोई 8,762 बच्चों तक पहुँच पाए थे।
रेल से हमारा रिश्ता अटूट है। रेल हमारे अच्छे-बुरे सभी दिनों में हमारा साथ देती रही है। ये हमारी जिंदगी में हमारी साँसों की तरह पैबस्त हैं पर लग रहा है कि साँसे अब उखड़-सी रही हैं। रेल बिक रही है। रेलवे स्टेशन बिकने लगे हैं। अब जहाँ स्टेशन हैं वहाँ बड़े-बड़े मॉल होंगे। दरवाजे पर दरबान बिठा दिए जाएँगे। कोई मासूम बच्चा घर से बिछड़कर अब इसकी पनाह हासिल नहीं कर सकेगा। रैन-बसेरा अब न होगा। गांजे वांले बाबा धकियाकर बाहर कर दिए जायेंगे। मुसवा गोविंद के चाचा 200 रूपये में प्लेटफार्म टिकिट लेकर स्टेशन में प्रवेश करेंगे और उन सब को हिकारत भरी नजरों से देखेंगे, जिन्होंने उनका मजाक उड़ाया था। यह उनके साथ एक तरह का पोयेटिक जस्टिसहोगा। रेल यात्राएँ तब भी होंगी। रेल भी रहेगी। स्टेशन भी रहेंगे। इनसे एक रिश्ता भी रहेगा पर उस रिश्ते में वह नमी नहीं होगी जो दिल के कुछ अनजान-से कोनों में कोंपलों के फूटने का सबब बनती है।
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Friday, 20 April 2018

"बात पुरानी है" -मधु


... कल परिवार की शादी में सम्मिलित होने जब हम होटल पहुँचे, तो दूल्हा-दुल्हन स्टेज़ से नदारद थे। मालूम हुआ कि दुल्हन सहित परिवार की सभी महिलाएँ पार्लर से तब तक होटल नही पहुँची हैं। आजकल सभी शादियों में अमूमन आखरी दिन तक यही हाल होता है। शादी के दिन घर की सभी गाडियाँ पार्लर, बुटीक, फ्लोरिस्ट और ज्वेलर्स के यहाँ इधर से उधर दौड़ती रहती हैं।
बात जरा पुरानी है। शायद आप इन घरेलू घटनाओं से संबंधित या परिचित न हों, लेकिन हम-जैसे मध्यमवर्गीय परिवारों में शादी लगते ही महीनों पहले से चर्चा और योजनाएं शुरू हो जाती-- बाजू का खाली प्लाट पंडाल से घेर लो, तो भवन लेने की आवश्यकता ही नही पड़ेगी। पता है, वे लोग घर से शादी नहीं कर रहे रे, “शादी घर” (बड़ी धर्मशाला या मैरिज हाल) लिया है.,., क्यू नही लेंगे.., खूब पैसा है.,., पहली शादी है, हाँ मुन्ना ने कमाया भी बहुत है, अच्छे से ही करेगा । खर्चा देख कर उसकी घरवाली का दिमाग खराब होगा लेकिन मुन्ना दमदार है, दबेगा नही-- नानी ताल ठोंक दावे के साथ कहती। नानी बताती थी कि पहले शादी गर्मी की छुट्टियों में इसलिए करते थे कि स्कूल के कमरे बारात ठहराने के लिए मिल जाते थे।
आखिरकार वो शुभ घड़ी भी आती जब "शादी घर" में मेहमान अपने अपने सूटकेस लिए, बड़ों का चरणस्पर्श करते प्रवेश करते। शादी घर के सबसे बड़े कमरे में पहले पहुँचा परिवार "पहले आओ, पहले पाओ" की तर्ज़ पर कुछ इस तरह आधिपत्य जमाता कि बाद में आये मेहमान आखरी तक उस कमरे में शरणार्थी की भूमिका में रहते 8 से 10 कमरों में जमीन पे किराए के गद्दे बिछे होते थे जैसे जैसे मेहमानों के पहुँचने का क्रम प्रारम्भ होता, सर ढकी बहुओं, सूटकेस पकड़े मर्दों के पैर छूने,  हाँफती मोटी अम्मा फूली सांस से कुर्सियों पे धम्म से बैठने, गले लगने का सिलसिला प्रारम्भ हो जाता बहुएं कुछ इस तरीके से सर ढकती कि उनका एक तोले का झुमका भी दिखता रहे। "लिहाज प्रदर्शन" में थोड़ी-थोड़ी देर में सर पर आँचल खींचने का उपक्रम भी चलता रहता। कानपुर वाली बुआजी के यहाँ फूफाजी के निधन के बाद कुछ लोग शादी घर में ही उनसे पहली बार मिल रहे है तो गले लग, नाक भिंगो और आँखे लाल कर सिसकने की रस्म अदायगी बनती है, लेकिन इस बीच चाय की सरकती ट्रे पर भी हाथ मारना है फिर बातचीत और सवालों की झड़ी- ये किसका छोरा है? ...वो किसकी बेटी? ...अरे कितना बड़ा हो गया, ...इसको सुमन की शादी में देखा था, ...नहीं, उसके ससुर दो साल हुए गुज़र गए न, ...हाँ, अर्चना का लड़का हुआ न, ...हावो ना जिज्ज्जी के तीनों लड़के अलग हो गए, नही-नही, ...चाची के दोनों दामाद अच्छे मिले, ...बाबा भइय्या मजे में 33 बसें चलती है, ...आप ही लड़का बताओ न कोई मौसा जी, ...आजकल की बहुएँ किस की सुनती हैं? मोनू की बम्बई में नौकरी लगी न, ...अरे सुमन मौसी के बेटे ने पंजाबिन लड़की से शादी कर ली महा घमंडी सुमन मौसी की उस अनदेखी पंजाबी बहू ने सब रिश्तेदारों के घावों पे मलहम का काम किया। रामपुर वाले जीजाजी को अटैक आया था न। मंडप के नीचे की उस महफ़िल में सूचनाओं की तीव्रता "समाचार चैनलों" के बुलेट गति वाले 100 समाचार की याद दिलाती थी
आजकल 5 स्टार होटलों की शादी में कमरे के भीतर की शान्ति में लगता ही नही की शादी में आये है होटल के कमरे में टीवी की आवाज़ और अपना इकलौता सूटकेसदरवाज़े में तहजीब के साथ वेटर की शालीन दस्तक या मोबाइल पर सूचित किया जाता है कि हल्दी का वक़्त हो गया है। सभी लोग मंडप पर पहुँचे पहले की शादियों में नहाने के लिए खाली बाथरूम के इंतज़ार में हाथ में कपड़े लटका भटकते मेहमान, चिल्ल-पों दौड़ते बच्चे बहुत अच्छे लगते थेकुछ कमउम्र छोकरे फ़िजूल व्यस्तता का नाटक करते फटर-फटर हीरो बन इस तरह घूमते जैसे शादी के सभी कामों के भार के साथ साथ ब्रह्मांड का बोझ भी उनके सर पर है। एक दो युवा लड़कियाँ अपने भारी लहंगे को महज़ दो दो उँगलियों से पकड़ पूरे मंडप में इठलाती आकर्षण का केंद्र बन मकसद में कामयाब होती। एक बात और याद आ गयी, घड़ी-घड़ी अपने सामान की सुरक्षा के लिए लोग सूटकेस में ताला लगातेजैसे किसी देहात के बस स्टैंड में बैठे है और सच्चाई ये थी कि कुछ के सामान गायब भी होते थे
शादी घर में सुबह का गर्म नाश्ता आते ही माताएँ बच्चों को तलाशने लगती और बच्चे आज़ादी का जश्न मनाते इधर उधर दौड़ते रहतेमंडप के नीचे हल्दी, मण्डपच्छादन, माता पूजनी की रस्म ढोलक और विवाह गीतों के साथ हँसी ठिठोली में सम्पन्न होती अब तो लेडीज़ संगीत भी किसी फिल्म अवार्ड फंक्शन की तरह एंकरिंग, कोरियोग्राफर, स्टेज़ और रिश्तेदारों द्वारा महीनों पहले से अभ्यास कर तैयार किये जाते हैं। हालांकि मेरी शादी तक लेडीज़ फंक्शन के नाम पर लड़की वालों के घर बारात के एक दिन पहले डीजे नाइट का आयोजन शुरू हो चुका था परिवार के बच्चों की नृत्य कला पर मुग्ध घर के बुजुर्ग सर के ऊपर से नोट निछावर करतेकुछ लजीले नर्तक नाचने के लिए दूसरों से मनुहार और बुलावे के इंतज़ार में दांत निपोरते ताली बजाते आगे-आगे हो खड़े होते थे
कुछ "बाउंसर" टाइप के रिश्तेदार मिठाइयों वाले कमरे के दरवाज़े पर पहरेदारी को तैनात होते। साँझ ढलते-ढलते सारी महिलाएँ बारात परघाने एक कमरे में दरवाज़ा बन्द कर तैयार होती थी पुरुषों का इस कमरे में प्रवेश निषेध होता था, लेकिन हर पल दरवाज़ों पे फेयर एंड लवली, शीशे, तेल कंघी के लिए पुरुष दस्तक होती रहती थी। दरवाजों के पीछे से महिलाओं का धड़रहित सर बाहर झांक कर आवश्यक सामान पकड़ा देता था इसमें भी एक बात गौर करने लायक थी। अलग-अलग परिवारों से आई हम उम्र बहुओं और बुजुर्ग सासों का अपना अपना ग्रुप बन जाता एक बन्द कमरे में तैयार होती बहुएं साड़ी पहनते हुए अपने दांतों में पिन दबा दाँत पिसते हुए अपनी सासों के अत्याचारों का बखान करती। कैसे सास ने डिलीवरी के लड्डुओं में ड्राई फ्रूट्स कम और गुड़ ज्यादा डाला था, कैसे मेरी मम्मी मेरी भाभी को नाज़ो में रखती है, मेरी ननद फ़ोन पर सास से पल पल की खबर लेती है और उन बहुओं की पीड़ा गाथा के अंत का निचोड़ होता कि एक बहू के रूप में उनकी सहनशीलता, त्याग को इतिहास याद रखेगा कथा का सार वाक्य होता "इनके घर मैं ही हूँ, जो निभा रही हूँ।"
सभी बुजुर्ग महिलाएँ एक अघोषित "श्रवणकुमार पुत्र की" प्रतियोगी होती थी सबके भोले लड़कों का दिमाग बहुओं ने खराब कर रखा हैमैरिज लॉन में बफ़े भोजन स्टाल खुलते ही सभी बुजुर्ग सासें भाग्य की मारी बस भगवत भजन, त्यागी, संतोषी, अल्पाहारी, हरिद्वार की राह पकड़ते अचानक रास्ता भटक लान के बफे स्टाल में सक्रिय हो जाती हैबुढ़ापे वाली ठुमक-ठुमक चाल में गीता का गूढ़ ज्ञान बरसाती "बहनजी आजकल की लड़कियों को तो बस मेरा पति, मेरा बच्चा। हमने जो सासों का झेला है, ये कर के दिखा दे एक दिन ।"
दरवाज़े पर बारात के आने से बेखबर बूढ़ी अजिया ठंड में सर तक शाल ओढ़े पोपले मुँह से कुल्फी खाती स्वर्गिक आनंद में डूबी जाती । बारातियों का नृत्य कौशल लड़की वालों के दरवाज़े पर अपने चरम पर होता है। समधी भेंट और स्वागत के लिये एक लंबे डंडे पर गेंदे की ढेर माला लटकाए लोग नृत्य समाप्ति की प्रतीक्षा में ऊबते रहते हैं। आखिरकार बैंड की सुस्त धुन "बहारो फूल बरसाओ मेरा मेहबूब आया है" से इस तांडव पर विराम लगता है। नाचते हुए पसीना-पसीना हो चुके लोग रुमाल से मुँह पोछते विजयी मुद्रा में प्रवेश करते हैं।
इन सबके बीच बारात आगमन का बैंड बजने लगता। वरमाला के वक़्त स्टेज पर दूल्हे के दोस्तों द्वारा दूल्हे को गोद में उठा ऊँचाई बढ़ाने की चिरपरिचित छेड़छाड़ बुजुर्गों को छिछोरापन और दूल्हे के दोस्तों को सालियों से निकटता बढ़ाने का सुनहरा अवसर लगता। "विराट-अनुष्का" के जयमाला में विराट को दोस्तों द्वारा गोद में उठा लेने पर मुझे लगा कि मित्र मंडली द्वारा इस परंपरा को बरसों बाद भी खतरा नही है। जयमाला के बाद फिर स्टेज पर लम्बा फ़ोटो सेशन। गाँव से आये बुजुर्गो का एक ही पोज़- "दूल्हा -दुल्हन" के सर पर हाथ रख कैमरे की ओर भावहीन तब तक ताकना जब तक फोटोग्राफर हाथ जोड़ स्टेज से उतरने न कहे। हमारे इस देशी पोज़ के आगे विजय माल्या का समुद्र किनारे वाला "बीच कैलेन्डर पोज़" फीका है। नववधू के रुपये भरे व्यवहार का लिफाफा सम्हालने की जिम्मेवारी मिलना रिश्तेदारों में ईमानदारी के लिए "पद्मश्री पुरस्कार" से कम न था। कई दफ़ा घराती और बराती के खाने के मैन्यू में भी सौतेला व्यवहार होता। फिर भी कुछ जुझारू भुक्कड़ उधर झांक-तांक कर आते। कई लोग सब्जी के डोंगे से सारा पनीर-पनीर निथारने की कोशिश में लाइन में लगे अगले व्यक्ति की घृणा का पात्र बनते हालाँकि अगला व्यक्ति अपनी बारी आने पर बिल्कुल वही हरकत करता है। सबसे ज्यादा मारा मारी आइसक्रीम के स्टाल पर होती। हाथ में आइसक्रीम आते ही विधायक की टिकट मिलने वाली प्रसन्नता से भीड़ में आइसक्रीम वाला हाथ ऊपर रख सुरक्षित निकल आते। देर रात रिसेप्शन के निपटते निपटते भोजन स्थल युद्ध के बाद विध्वंश की कहानी सुनाता कुरुक्षेत्र का मैदान लगता
उस गिद्ध भोज के बाद पूरी रात चलने वाली "विवाह रस्म" फूलों वाले छोटे मंडप के नीचे प्रारम्भ होती। तब तक भारी भीड़ कुछ हद तक छट चुकी होतीवर-वधु के नितांत करीबी को तो पूरी रात जागना अनिवार्य हैजिन दूर के रिश्तेदार महिलाओं का नींद से बुरा हाल हो रहा हो, वो भी आँखे फाड़ उंघती सिर्फ इस आस में जागती कि एक नज़र लड़की के ससुराल से आए चढ़ावे के गहने देखूँ फिर सोने जाऊँ । अच्छा, महिलाओं में ही ये योग्यता या दैवीय शक्ति है कि एक एक गहने की डिज़ाइन पर साल भर बिना थके चर्चा कर सकती हैउत्सुक महिलाएँ गहनों को पूरी बेशर्मी से निहार अपनी बरसों पुरानी शादी और कंजूस ससुराल को दुबारा पूरी शिद्दत से कोसती सोने चली जाती युवा लड़कियों का सबसे बड़ा मुद्दा आधी रात फेरों के वक़्त अपनी एक और ड्रेस बदल कर आना होता। उनके फैशन परेड को कुछ जोड़ी मूक बाराती आँखों का भरपूर प्रोत्साहन मिलता। एक दो बाराती का उत्पाती होना, जीजाजी का नाराज होना, फूफाजी का गुस्से में जनवासे चला जाना, चार बुजुर्गो का दुहाई दे समझाना, दो पंडितो का नेग चार पर विवाद किसी भी भारतीय शादी की अलिखित अनिवार्य रस्में हैनींद से मरते मेहमानों को शादी वाली रात कमरों में इंच-इंच हिसाब से सोये लोगो के बीच अपने सोने के लिए जगह बनाना भी हुनर हुआ करता था छोटे बच्चे बेसुध नींद में इधर उधर लुढके पड़े होतेअभी दो घंटे पहले पार्टी में गाजर के हलवे के स्टाल में गुत्थम गुत्था होती मौसी गहरी नींद में गहने कपड़े लत्तो में बेसुध मुँह खोले सांसारिकता से विरक्त खर्राटे ले रही है सोते लोगों से भरा सन्नाटे वाले कमरे का हाल कलिंगा युद्ध के बाद मरघट सा होता। घसर-पसर सबको धकियाते किराए के गंदे गद्दों में गुंजाइश निकाल अपने हिस्से का पट्टा वितरण ले लो
       सुबह जब नींद खुले, तो पूरी शादी निपट चुकी होती थीदूसरों से पता चलता कुँवर कलेवा में ताई की गायी गाली का लड़के के चाचा ने बुरा माना, जूता छिपायी में 2100 रुपए मिले। ट्रक में दहेज़ का सामान चढ़ाते बारातियों की चमकीले शेरवानी, कोट और तीखे तेवर सुबह होते होते ढीले पड़ चुके होते थे मंडप के नीचे और पूरे हाल में रात भर चली शादी के मुरझाये फूल, बिखरे पीले चावल, रिसेप्शन में आये गिफ्ट के चमकीले पैकेट, थालियों में कुछ वहशियों के जरुरत से ज्यादा लिया बचा भोजन और थके, बसियाये लोग इधर उधर होते नजर आते उनके फैशन परेड को कुछ जोड़ी मूक बाराती आंखों का भरपूर प्रोत्साहन मिलता। नम पलकों से रोते-धोते लड़की विदा होती। कितने बाराती यहाँ अपना दिल छोड़े जा रहे है इसका लेखा जोखा थोड़ा मुश्किल है बारात विदा होते ही घरवाले टेंट के बर्तन गिनवाओ, मेहमान की ट्रेन का वक़्त हो गया, जाते मेहमानों में किसे लड्डू के पैकेट नही मिले, विदाई की साड़ियाँ देती घरवाली। एक समारोह के समापन की औपचारिकताएँ चलती रहती। लौटते रिश्तेदार रेलवे स्टेशन के लिए सूटकेस के साथ रिक्शे में सवार और शादीघर से वापसी का सफर शुरू। जाते हुए सुबकते, मुस्कुराते, हाथ हिलाते, पैर छूते, गले लगते रिक्शे के थोड़ा आगे बढ़ते ही बच्चों के हाथ पकड़ाए रुपये झपटते "लाओ देखूँ तो 100 है या 50", चाय बहुत पतली थी, घर वालो ने हलवाई को हिदायत दी होगी, विदाई में मिली साड़ी की संभावित कीमत का आकलन, लड़का टक्कर का नही मिला, मुन्ना इतना ससुराली हो गया है कि ससुराल वाले ऐसा मालिकाना दिखा रहे थे जैसे उन्ही के घर की शादी हो, मैंने जो कान के टॉप्स दिए उनके वाले से दो ग्राम ज्यादा ही था...ऐसे तमाम किस्सों से रिक्शे वाले का रास्ते भर मनोरंजन करते लौट जाते थे।
प्रेम, मनुहार, रुठते, मनाते पारम्परिक रस्मों की डोर में बंधी, बड़ों के आशीर्वाद के साथ 10 रुपए न्यौछावार और छोटों के नागिन डांस के अभूतपूर्व उत्साह से संपन्न हो जाती थी हमारी भारतीय मिडिल क्लास शादियाँ। कल की शादी में यह सेल्फी लेती हुई सोच रही थी कि वे विवाह समारोह महज़ शादियाँ न होकर महापर्व था पारम्परिकता और संस्कारों का, आयोजन था रूठे रिश्तों को मनाने का, मौका था मुरझाते सम्बन्धों को सींचने का, सम्भावनाएँ थीं नए रिश्तों की कड़ियों की और अवसर था बेटे बेटियों के सुखद भविष्य की प्रार्थना का..... 
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"अमीन सायानी...बचपन की आवाज़ का खामोश होना"- राजेश ज्वेल

  उज्जैन के पटनी बाजार में तोतला भवन की पहली मंजिल का मकान और गोदरेज की अलमारी के ऊपर रखा ट्रांजिस्टर... हर बुधवार की सुबह से ही ट्रांजिस्टर...