बात
थोड़ी संजीदा है। भारतीय रेल से हम सबका थोड़ा-बहुत लगाव है। कुछ भावनात्मक रिश्ता
जैसा भी है। बचपन में हम सब कतारबद्ध होकर रेल का खेल खेलते थे। अगूंठे और उँगलियों के बीच समकोण बनाकर
सीटी बजाई जाती थी। छोटी जगहों पर तो आज भी लोग नियमित रूप से टहलने के
लिए स्टेशन ही जाते हैं। कस्बों में कुछ लोग रेल के बड़े ‘जानकार’ होते हैं। उनके पास रेल संबंधी
अद्यतन सूचना होती है और वे इसे बड़े गर्व के साथ प्रस्तुत करते हैं। कुछ
आवाज सुनकर बता देते हैं कि फलानी ट्रेन है। कुछ ऐसे भी होते हैं, जिन्हें अप और डाउन का
अंतर मालूम नहीं होता और इसे लेकर वे हमेशा खीझते रहते हैं। कुछ मित्रों को रेल के डिब्बे में चढ़ते
ही जोरों की भूख लग आती है। कुछ निहायत चुप्पे होते हैं- मेरी तरह और कुछ जन
संपर्क के लिए ही यात्रा करते हैं। उन्हें देखकर लगता है कि सहयात्री से
बड़ा उनका सगा कोई नहीं है, पर जब स्टेशन आता है तो बिना दुआ-सलाम के उतर जाते हैं। कुछ को अपनी सीट की थोड़ी
जगह देते हुए ऐसा वैराग्य भाव जागता है, जैसा बहादुर शाह जफ़र को दिल्ली छोड़ते हुए भी महसूस नहीं हुआ होगा। कुछ
सीट के लिए लड़ाई करने को अपना धर्म समझते हैं और सीट वैसे ही मिल जाए तो
उन्हें बड़ी निराशा होती है।
जब मैं छोटे गाँव से छोटे कस्बे में आया था तो घर में सिगड़ी जलाने की
परम्परा थी। इसमें लगने वाला कोयला
मालगाड़ी के डिब्बों से उतारकर लाया जाता था और तब इसे चोरी नहीं समझी जाती थी। इस काम में कुछ जरूरतमन्द महिलाएं लगी
होती थीं और ‘बड़े बाबू’ निःस्वार्थ भाव से उनकी
मदद भी करते थे। यह एक आपसी समझदारी हुआ करती थी कि
दो-चार बूंदों के छिटक जाने से समुद्र नहीं सूख जाएगा। यह एक तरह से रसोईघर के लिए मिलने वाली ‘अनऑफिशियल’ सब्सिडी भी थी, जिसे वक्त ने अपने मन की बात कहकर सरेंडर करवा लिया। तब शाम के
वक्त किसी नए आदमी को रेलवे कालोनी
का पता नहीं पूछना पड़ता था और सिगड़ी से उठने वाले धुंए की सघनता से वह इसका सुराग पा लेता था।
कस्बे
के उत्साही लोग गर्मियों में स्टेशन में
प्याऊ भी लगाते थे। बोतलबन्द पानी का चलन नहीं था। रेत पर रखे बड़े-बड़े मटके लाल रंग के कपड़े से ढंके होते थे और यह
साबित करते थे कि परोपकारी लोग
जाने-अनजाने कम्युनिस्ट होते हैं। कपड़ों को थोड़ी-थोड़ी
देर में पानी छींटकर भिगो लिया जाता। मटकों के पीछे एक बैनर में प्रायोजक का नाम होता था जो अमूमन ‘मारवाड़ी व्यापारी संघ’ या ‘सिंधी व्यापारी संघ’ का होता। कभी-कभी ये
प्लेटफॉर्म का बँटवारा कर लेते थे और बेहतर सेवा के लिए इनके
बीच एक अघोषित स्पर्धा-सी चलती थी। जैसे ही कोई गाड़ी आकर खड़ी होती युद्ध स्तर पर जल वितरण का कार्य शुरू हो जाता। कभी किसी नवयुवक को अनायास किसी
सुंदर-सुमुखी कन्या को जल-प्रदाय का सुअवसर हाथ लग जाता तो वह एकदम से तर जाता था और बाद में आने वाली गाड़ियों में
न सिर्फ और अधिक उत्साह से
जल-वितरण करता, बल्कि स्वेच्छा से अगली
गाडी के आने तक ओवरटाइम के लिए भी
तैयार हो जाता था। कुछ आगे चलकर ‘सिंधी व्यापारी संघ’ का बैनर ‘सिंधी यूथ एसोसिएशन’ के बैनर में तब्दील हो
जाता है और स्वंयसेवकों की जगह एक ‘पेड-वर्कर’ तैनात मिलता है जो बड़े
बेमन से यात्रियों को पानी पिलाता
है और यात्री कहते हैं कि यहाँ पहले मिलने वाला पानी बड़ा मीठा हुआ करता था! मीठे पानी की झील में खारापन आने का
सबब हमेशा साइंस की किताबों में
नहीं ढूँढा जा सकता और न ही यह बात इल्म वालों को समझाई जा सकती है।
स्टेशन
में प्रवेश के लिए प्लेटफार्म टिकिट का
खरीदना
वैधानिक रूप से वर्जित था। एक बार मुसवा गोविन्द के चाचा जब शहर से आए थे और उन्होंने टिकिट-बाबू के पास जाकर प्लेटफार्म टिकिट माँगा
था तो बाबू ने चाचा को ऐसी
निगाह से देखा, जिसकी चुभन वो आज तक
महसूस करते हैं। प्लेटफार्म टिकिट खरीदने
के इस असफल प्रयास का किस्सा कस्बे में कई दिनों तक लतीफे की तरह चलता रहा और यह अपने किस्म का पहला और अंतिम वाकया
था। इतिहास के प्रति लापरवाह
भारत सरकार इस ऐतिहासिक तारीख को अपने शासकीय अभिलेखों में दर्ज करने से चूक गयी और सयाने लोग बताते हैं कि
मुसवा गोविन्द के चाचा इस घटना
से इतने आहत हुए कि दोबारा कभी पलटकर यहाँ नहीं आए।
लटदार
बालों वाली पगलिया बाई और गांजे वाले बाबा का स्थायी निवास भी यहीं हुआ करता था। तब के बाबा आज के बाबाओं की तरह
कारपोरेट नहीं थे और दुनिया-जहान को
ठेंगे पर रखकर सिर्फ अपनी चिलम की परवाह करते थे। नारियल की रस्सी से बना गोला जब चिलम खेंचने के दौरान लाल-सुर्ख
होकर सुलगता था तो ऐसा महसूस
होता था मानों बाबा दुनिया-ए-फ़ानी के खिलाफ अपनी सदियों से सिंचित नफरत के साथ फैसलाकुन जंग का ऐलान कर रहे हों। घर
में बीवी से रूठ जाने वाले
पति को स्टेशन की बेंच में ही शरण मिलती और वह बगैर किसी रोक-टोक के घण्टों बैठा रह सकता था। कभी आस-पास के गाँव से दो-तीन बैलगाड़ियों का काफिला आता तो रैन-बसेरा यही हुआ करता था और मुस्टंड
बैल घाघ टिकिट चेकर की तरह
मुख्यद्वार पर तैनात रहते और हर आने-जाने वाले की कड़ी निगरानी करते। साउथ केबिन की ओर ड्यूटी बदलकर आने-जाने वाले हर
स्विचमेन; और एक झोले में केरोसिन
का डिब्बा लादकर देर शाम को सिग्नल की दियाबत्ती करने वाले पोर्टर को सलाम ठोंकने वाले बंजारों के परिवार को मैंने
कई-कई दिन तक यहाँ डेरा डाले
हुए देखा है। शाम को सुलगती आग में हंड़िया को उलटकर थापी गई मोटी -मोटी रोटी या पेशेवर हाथों से बनाई गई गोल गकड़ियाँ
जब धीमे-धीमे सिंकती थी, तब कुछ देर रुककर मैं इन्हें बड़ी दिलचस्पी से देखता था और मेरे दांतों के अंदरुनी हिस्से ने कई बार अपनी कल्पनाओं में
बाहर से कड़क और अंदर खूब गर्म पर
हल्के कच्चे आटे को चिपकता-सा महसूस किया है।
उन
दिनों जब स्ट्रीट फ़ूड और महंगे रेस्तराओं का चलन नहीं था, जुबान का जायका बदलने के लिए
स्टेशन ही मुफीद जगह थी और महज इसी उद्देश्य के लिए रेल-यात्राओं की प्रतीक्षा रहती थी। उत्कल एक्सप्रेस से बिलासपुर
से दिल्ली जाते हुए खोडरी स्टेशन
में कुल्हड़ वाली चाय और पेंड्रारोड में हरे पत्ते के दोनों में समोसा खाना अनिवार्य था। गोंदिया-जबलपुर छोटी लाइन के
शिकारा स्टेशन में भाजी-बड़े बड़े
मशहूर हुआ करते थे और रेलवे के गार्ड-ड्राइवर की कैंटीन वालों के साथ बड़ी आत्मीयता हुआ करती थी। इनके आगमन पर वह
अलग से ‘स्पेशल चाय’ चढ़ा दिया करता था जो निःशुल्क होती थी। चाय चढ़ाने का असल उद्देश्य उन्हें फँसाकर गाड़ी को ‘ऑउट ऑफ़ कोर्स’ रोके रहना होता था ताकि
सारा
माल उठ जाए। ये बात वे सारे लोग जानते थे और यह भी जानते थे कि दूसरा भी यह जानता है, पर इस प्रसंग की सारी
ख़ूबसूरती जान-बूझकर अनजान बने रहने में थी। चक्रधरपुर रेलवे
स्टेशन के पार होते ही ‘खराब से खराब चाय’ बेचने वाले आ धमकते। ‘खराब चाय’ एक ब्रांड हुआ करती थी जो
वास्तव में बहुत अच्छी होती थी। कालांतर में
दीगर हलकों की तरह यहाँ भी नैतिकता का पतन हुआ और
‘खराब
चाय’ के नाम पर सचमुच ही खराब चाय मिलने लगी और जब
सवारी की शिकायत मिले तो बताया जाने लगा
कि ‘हुजूर! हमने तो पहले ही कहा था!!’ झाल-मुड़ी का तीखा स्वाद अलबत्ता अब तक
बरकरार है। बहुत से मारवाड़ी मित्र घर आकर इस डिश को बनाने का असफल प्रयास कर चुके हैं, क्योंकि वे अमूमन अपने घरों में
‘मीठा
तेल’ खाते हैं, जबकि झालमुड़ी का असल
फ्लेवर ‘कड़वे’ सरसों के तेल से आता है। मुम्बई के पहले
इगतपुरी में, जहाँ एसी -डीसी ट्रैक्शन
में परस्पर बदलाव होता है, खूब तीखी मिर्च वाला वड़ा-पाव पानी की अग्रिम व्यवस्था कर लेने की वैधानिक चेतावनी दिए बगैर इतने प्यार से खिलाया जाता है कि
उसकी याद अगले दिन तक आती है।
अरबी के पत्तों में बेसन लपेटकर, भाप से उबालकर और फिर तलकर परोसा जाने वाला व्यंजन मुझे सिर्फ गुजरात के स्टेशनों
में नजर आया जो घर में मेरी
पसंदीदा डिश हुआ करती थी। इसे खाते हुए हर बार मुझे यह ख्याल आता कि इसकी पैकेजिंग कर यदि इसे विदेशों में भेजा जाए तो
कारोबार को खूब फैलाया जा सकता है।
जब कोई
फ़िल्म हिट हो जाती थी और कई दिनों बाद उसकी पेटियाँ कस्बे
में पहुँचती थी तो उसका सुराग लग जाने पर उनकी अगवानी के लिए अच्छी-खासी भीड़ जुटती थी। स्टेशन की दीवार का एक
कोना आने वाली फ़िल्म के पोस्टर के
लिए सुरक्षित रहता था और ये पोस्टर कई-कई दिनों तक लगे होते थे क्योंकि तब नई फ़िल्में आज की सरकारी योजनाओं की तरह
पहले महानगर, फिर बड़े नगर, फिर प्रदेशों की राजधानी, फिर जिला मुख्यालय और अंत
में
छोटे कस्बों- गाँवों में पहुंचती थी। इन पोस्टरों के बदलने के लिए भी लम्बे समय तक इंतज़ार करना पड़ता था और कभी-कभी जब बर्दाश्त की हद
पार हो जाती तो कोई तरक्कीपसंद, इंकलाबी नौजवान पोस्टर में चस्पां हीरोइन पर अपनी मोहब्बत का इजहार कर देता और लगे हाथ मूँछमुंडे हीरो के होंठों के
ऊपर कृत्रिम मूँछे बनाकर
नायिका को यह गुप्त सन्देश भी भेज देता की असल मर्द दरअसल वही है। फ़िल्में देखना अब नहीं के बराबर है पर उन दिनों की
फ़िल्में रेल के बगैर पूरी नहीं
होती थी। पाकीज़ा में ‘यूँ ही कोई मिल गया था’ में रेल की सिटी को भला कोई
कैसे भूल सकता है। गुलाम मोहम्मद या नौशाद साहब ने बड़ा कमाल किया है। रेल के इंजिन की सीटी का ऐसा संगीतात्मक प्रयोग
अप्रतिम है। धर्मेन्द्र-शत्रुघन
सिन्हा की दोस्त फ़िल्म का एक पूरा गाना रेल को समर्पित है। ‘द बर्निंग ट्रेन’ रेल पर ही बनी थी और इतनी अतार्किक थी कि अग्रज लेखक मनहर चौहान ने नवभारत में एक टिप्पणी लिखी थी, ‘द टर्निंग ब्रेन’। रोटी फ़िल्म में हीरो राजेश खन्ना सह-नायक को ट्रेन से धकेल देता
है और पश्चाताप की आग में
जलता है। जंजीर का सहनायक प्राण लोकल ट्रेन में एक गवाह को लेकर जाता है, जिसकी हत्या हो जाती है।
शोले
फ़िल्म में तो कुछ शॉट कमाल के हैं।
गब्बर जेल से भागकर सीधे ठाकुर के घर पहुँचता है और कत्ले-आम मचाता है। आखिरी गोली की आवाज के साथ ठाकुर की गाड़ी गाँव
पहुंचती है, पर कोई रिसीव करने वाला नहीं है। ठाकुर सिर उठाकर आसमान की और
देखता है। बादल नहीं हैं, बारिश का अंदेशा नहीं है, फिर भी कोई नहीं आया? इंजिन धुंआ उड़ाता हुआ निकल जाता
है, जैसे प्राण-पखेरू उड़ गए हों। और डाकुओं से लड़ाई का तो बहुत लम्बा दृश्य है। यह सूची बहुत लंबी है। अनगिनत
किस्से और कहानियाँ हैं।
रेल से
भारत की आजादी का अटूट रिश्ता रहा है।
गाँधीजी
को दक्षिण अफ्रीका के पीटर मेरिट्जबर्ग स्टेशन में पहले दर्जे का टिकिट होते हुए भी सामान सहित फेंक दिया गया था। कड़ाके की ठण्ड में
स्टेशन के वेटिंग हॉल में उन्हें
रात गुजारनी पड़ी थी। अपमान, ग्लानि, हताशा, क्रोध आदि के न जाने कितने मनोभाव हृदय को चीरकर आर-पार गुजरे होंगे।
मुझे किसी अभिनेता को परखना हो तो
मैं इसी दृश्य को दोहराने को कहूँगा। उन्होनों अपमान को चुपचाप पिया नहीं। क्रोध को भी ठंडा होने नहीं दिया।
चुपचाप वापस नहीं लौट आए। शिकायत दर्ज
की। अखबार को चिठ्ठी भेजी। बतर्ज हजारी प्रसाद द्विवेदी, क्रोध का अचार-मुरब्बा
बनाकर उसे पोसते रहे और एक दिन फिरंगियों
को उसी
तरह आधी रात को सामान सहित उठाकर बाहर फेंक दिया। पर वे स्वेच्छा से खुद तीसरे दर्जे के डिब्बे में सफर करने लगे थे। भारतीय रेल ने
तीसरे दर्जे के डिब्बे को बदलकर
जनरल डिब्बा कर दिया और इसमें यात्रा करने से नरक-यात्रा का पुण्य हासिल होने लगा। गाँधी जी जिन्हें देश का
अंतिम आदमी कहते थे, उन्हें इसी डिब्बे में पाया जा सकता है। खुद गाँधी आज होते तो हरगिज इस डिब्बे में यात्रा नहीं करते और बहुत जरूरी होने पर
पदयात्रा ही कर लेते।
दीवार
फ़िल्म के एक दृश्य में ट्रेन में ही एक ‘लावारिश’ लाश मिलती है। इंस्पेक्टर की भूमिका वाले शशि कपूर को जब इत्तिला
दी जाती है तो पता चलता है की
सत्येन कप्पू का ‘पार्थिव शरीर’ लावारिश नहीं है। वे उनके पिता हैं, जो एक दिन घर छोड़कर चले गए थे। इन्हीं हालात में राजेश खन्ना पर एक बहुत ही खूबसूरत गीत ‘जिंदगी के सफर में गुजर
जाते हैं जो मुकाम, वो फिर नहीं आते’ ट्रेन में फिल्माया जाता
हैं। यानी बेघर हो जाने वालों का घर भारतीय रेल
ही होता है। घर से बाहर एक ऐसा घर जो जेब में एक पाई न होने पर भी मिल सकता है और जहाँ किसी तरह जी लेने की सारी
संभावनाएं जिंदा होती हैं। अनब्याही
माँएं शिशुदान के लिए यहाँ का रूख इसी उम्मीद से करती हैं कि किसी न किसी तरह उसकी कश्ती किनारे लग जाएगी। लावारिश
बच्चों के लिए काम करने वाली एक
संस्था के वेब साइट ‘रेलवे चिल्ड्रन’ से पता चलता है कि देश में हर 5 मिनट बाद किसी न किसी रेलवे स्टेशन में एक लावारिश बच्चे का आगमन होता है और वे पिछले एक साल की अवधि में ऐसे कोई 8,762 बच्चों तक पहुँच पाए थे।
रेल से
हमारा रिश्ता अटूट है। रेल हमारे अच्छे-बुरे सभी दिनों में
हमारा साथ देती रही है। ये हमारी जिंदगी में हमारी साँसों की तरह पैबस्त हैं पर लग रहा है कि साँसे अब उखड़-सी
रही हैं। रेल बिक रही है। रेलवे
स्टेशन बिकने लगे हैं। अब जहाँ स्टेशन हैं वहाँ बड़े-बड़े मॉल होंगे। दरवाजे पर दरबान बिठा दिए जाएँगे। कोई मासूम
बच्चा घर से बिछड़कर अब इसकी पनाह
हासिल नहीं कर सकेगा। रैन-बसेरा अब न होगा। गांजे वांले बाबा धकियाकर बाहर कर दिए जायेंगे। मुसवा गोविंद के चाचा 200 रूपये में प्लेटफार्म टिकिट
लेकर स्टेशन में प्रवेश करेंगे और उन सब को हिकारत भरी नजरों से देखेंगे, जिन्होंने उनका मजाक
उड़ाया था। यह उनके साथ एक तरह का ‘पोयेटिक जस्टिस’ होगा। रेल यात्राएँ तब भी
होंगी। रेल भी रहेगी। स्टेशन भी रहेंगे। इनसे एक
रिश्ता भी रहेगा पर उस रिश्ते में वह नमी नहीं होगी जो दिल के कुछ अनजान-से कोनों में कोंपलों के फूटने का सबब बनती है।
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