...
कल परिवार की शादी में सम्मिलित होने जब हम होटल पहुँचे, तो दूल्हा-दुल्हन स्टेज़ से नदारद थे। मालूम हुआ कि दुल्हन सहित परिवार की सभी महिलाएँ पार्लर से तब तक होटल नही पहुँची हैं। आजकल सभी शादियों में अमूमन आखरी दिन तक यही हाल होता है।
शादी के दिन घर की सभी गाडियाँ
पार्लर, बुटीक, फ्लोरिस्ट और ज्वेलर्स के
यहाँ इधर से उधर दौड़ती रहती हैं।
बात
जरा पुरानी है। शायद आप इन घरेलू घटनाओं
से संबंधित या परिचित न हों, लेकिन हम-जैसे मध्यमवर्गीय परिवारों में शादी लगते ही महीनों पहले से चर्चा और
योजनाएं शुरू हो जाती-- बाजू का
खाली प्लाट पंडाल से घेर लो, तो भवन लेने की आवश्यकता ही नही पड़ेगी। पता है, वे लोग घर से शादी नहीं कर रहे रे, “शादी घर” (बड़ी धर्मशाला या मैरिज हाल) लिया है.,., क्यू नही लेंगे.., खूब पैसा है.,., पहली शादी है, हाँ मुन्ना ने कमाया भी बहुत है, अच्छे से ही करेगा । खर्चा देख कर उसकी घरवाली का दिमाग खराब होगा लेकिन मुन्ना दमदार
है, दबेगा नही-- नानी ताल ठोंक दावे
के साथ कहती। नानी बताती थी कि पहले शादी गर्मी की छुट्टियों में इसलिए करते थे कि स्कूल के कमरे बारात ठहराने के
लिए मिल जाते थे।
आखिरकार वो शुभ घड़ी भी आती जब "शादी घर" में मेहमान अपने अपने
सूटकेस लिए,
बड़ों का चरणस्पर्श करते प्रवेश
करते। शादी घर के सबसे बड़े कमरे में पहले पहुँचा परिवार "पहले आओ, पहले पाओ" की तर्ज़ पर कुछ इस तरह आधिपत्य जमाता कि बाद में आये मेहमान आखरी तक उस कमरे में शरणार्थी की भूमिका में रहते। 8 से 10 कमरों में जमीन पे किराए के गद्दे बिछे होते थे। जैसे जैसे मेहमानों के पहुँचने का क्रम प्रारम्भ होता, सर ढकी बहुओं, सूटकेस
पकड़े मर्दों के पैर छूने, हाँफती मोटी अम्मा फूली सांस से कुर्सियों पे धम्म से बैठने, गले लगने का सिलसिला प्रारम्भ
हो जाता। बहुएं कुछ इस तरीके से सर ढकती कि उनका एक तोले का झुमका भी दिखता रहे। "लिहाज प्रदर्शन" में थोड़ी-थोड़ी देर में सर पर आँचल खींचने का
उपक्रम भी चलता रहता। कानपुर वाली बुआजी के यहाँ फूफाजी के निधन के बाद कुछ लोग शादी घर में ही उनसे पहली बार मिल
रहे है तो गले लग, नाक भिंगो और आँखे लाल कर सिसकने की रस्म अदायगी बनती है, लेकिन इस बीच चाय की सरकती ट्रे पर भी हाथ मारना है। फिर बातचीत और सवालों की
झड़ी- ये किसका छोरा है? ...वो किसकी बेटी? ...अरे कितना बड़ा हो गया, ...इसको सुमन की शादी में देखा था, ...नहीं, उसके ससुर दो साल हुए गुज़र गए न, ...हाँ, अर्चना का लड़का हुआ न, ...हावो ना
जिज्ज्जी के तीनों लड़के अलग हो गए, नही-नही, ...चाची के दोनों दामाद अच्छे मिले,
...बाबा भइय्या मजे में 33 बसें चलती है, ...आप ही लड़का बताओ न कोई मौसा जी, ...आजकल की बहुएँ किस की सुनती हैं? मोनू की बम्बई में नौकरी लगी न, ...अरे
सुमन मौसी के बेटे ने पंजाबिन लड़की से शादी कर ली । महा घमंडी सुमन मौसी की उस अनदेखी पंजाबी बहू ने सब रिश्तेदारों के
घावों
पे मलहम का काम किया। रामपुर वाले जीजाजी को अटैक आया था न। मंडप के
नीचे
की उस महफ़िल में सूचनाओं की तीव्रता "समाचार चैनलों" के
बुलेट गति वाले
100 समाचार की याद दिलाती थी ।
आजकल 5 स्टार होटलों की शादी में कमरे के भीतर की शान्ति में लगता ही नही
की शादी में आये है। होटल के कमरे में टीवी की आवाज़ और अपना इकलौता
सूटकेस। दरवाज़े में तहजीब के साथ वेटर की
शालीन दस्तक या मोबाइल पर सूचित किया जाता है कि
हल्दी का वक़्त हो गया है। सभी लोग मंडप पर पहुँचे। पहले की शादियों में नहाने के लिए
खाली बाथरूम के इंतज़ार में हाथ में कपड़े लटका भटकते मेहमान, चिल्ल-पों दौड़ते बच्चे
बहुत अच्छे लगते थे। कुछ कमउम्र छोकरे फ़िजूल व्यस्तता का नाटक करते फटर-फटर हीरो बन इस तरह घूमते जैसे
शादी के सभी कामों के भार के साथ
साथ ब्रह्मांड का बोझ भी उनके सर पर है। एक दो युवा लड़कियाँ अपने भारी लहंगे को महज़ दो दो उँगलियों से पकड़ पूरे
मंडप में इठलाती आकर्षण का केंद्र
बन मकसद में कामयाब होती। एक बात और याद आ गयी, घड़ी-घड़ी अपने सामान की सुरक्षा के लिए लोग सूटकेस में ताला लगाते। जैसे किसी देहात के बस स्टैंड
में बैठे है और सच्चाई ये थी कि कुछ के सामान गायब भी होते थे।
शादी घर में सुबह का गर्म नाश्ता आते ही माताएँ बच्चों को तलाशने लगती और बच्चे
आज़ादी का जश्न मनाते इधर उधर दौड़ते
रहते। मंडप के नीचे हल्दी, मण्डपच्छादन, माता पूजनी की रस्म ढोलक और विवाह गीतों के साथ हँसी ठिठोली में सम्पन्न
होती। अब तो
लेडीज़ संगीत भी किसी फिल्म अवार्ड फंक्शन की तरह एंकरिंग, कोरियोग्राफर, स्टेज़ और रिश्तेदारों
द्वारा महीनों पहले से अभ्यास कर तैयार किये
जाते हैं। हालांकि मेरी शादी तक लेडीज़ फंक्शन के नाम पर लड़की वालों के घर बारात के एक दिन पहले डीजे नाइट का आयोजन शुरू हो चुका था। परिवार के बच्चों की नृत्य कला पर मुग्ध घर के बुजुर्ग सर के ऊपर से नोट
निछावर करते। कुछ लजीले नर्तक नाचने के लिए
दूसरों से मनुहार और बुलावे के इंतज़ार में दांत
निपोरते ताली बजाते आगे-आगे हो खड़े होते थे।
कुछ "बाउंसर"
टाइप के रिश्तेदार मिठाइयों वाले कमरे के दरवाज़े पर पहरेदारी को
तैनात होते। साँझ ढलते-ढलते सारी महिलाएँ बारात परघाने एक कमरे में दरवाज़ा बन्द कर तैयार होती थी। पुरुषों का इस कमरे में प्रवेश निषेध होता था, लेकिन हर पल दरवाज़ों पे फेयर एंड लवली, शीशे, तेल कंघी के लिए पुरुष दस्तक होती रहती थी। दरवाजों के पीछे से महिलाओं
का
धड़रहित सर बाहर झांक कर आवश्यक सामान पकड़ा देता था। इसमें भी एक बात गौर करने लायक थी। अलग-अलग परिवारों से आई हम उम्र बहुओं और बुजुर्ग
सासों का अपना अपना ग्रुप बन जाता। एक बन्द कमरे में तैयार
होती बहुएं साड़ी पहनते हुए अपने दांतों में पिन
दबा दाँत पिसते हुए अपनी सासों के अत्याचारों का बखान करती। कैसे सास ने डिलीवरी के लड्डुओं में ड्राई फ्रूट्स कम
और गुड़
ज्यादा डाला था, कैसे मेरी मम्मी मेरी
भाभी को नाज़ो में रखती है, मेरी ननद फ़ोन पर सास से पल पल की खबर लेती है और उन बहुओं की पीड़ा गाथा
के अंत
का निचोड़ होता कि एक बहू के रूप में उनकी सहनशीलता, त्याग को इतिहास याद रखेगा। कथा का सार वाक्य होता "इनके घर मैं ही हूँ, जो निभा रही हूँ।"
सभी बुजुर्ग महिलाएँ एक अघोषित "श्रवणकुमार पुत्र की" प्रतियोगी होती थी। सबके भोले लड़कों का दिमाग बहुओं ने खराब कर रखा है। मैरिज लॉन में बफ़े भोजन स्टाल खुलते ही सभी बुजुर्ग सासें भाग्य की मारी बस भगवत भजन, त्यागी, संतोषी, अल्पाहारी, हरिद्वार की राह पकड़ते
अचानक रास्ता भटक लान के बफे स्टाल में सक्रिय हो जाती
है। बुढ़ापे वाली ठुमक-ठुमक चाल में गीता का
गूढ़
ज्ञान बरसाती "बहनजी आजकल की लड़कियों को
तो बस मेरा पति,
मेरा बच्चा। हमने जो सासों का झेला है, ये कर के दिखा दे एक दिन
।"
दरवाज़े पर बारात के आने से बेखबर बूढ़ी अजिया ठंड में सर तक शाल ओढ़े पोपले मुँह से
कुल्फी खाती स्वर्गिक आनंद में डूबी
जाती । बारातियों का नृत्य कौशल लड़की वालों के दरवाज़े पर अपने चरम पर होता है। समधी भेंट और स्वागत के लिये एक
लंबे डंडे पर गेंदे की ढेर माला
लटकाए लोग नृत्य समाप्ति की प्रतीक्षा में ऊबते रहते हैं। आखिरकार बैंड की सुस्त धुन "बहारो फूल बरसाओ मेरा मेहबूब आया है" से इस तांडव पर विराम
लगता है। नाचते हुए पसीना-पसीना हो चुके लोग रुमाल से मुँह पोछते विजयी मुद्रा में प्रवेश करते हैं।
इन सबके बीच बारात आगमन
का बैंड बजने लगता। वरमाला के वक़्त स्टेज पर दूल्हे के
दोस्तों द्वारा दूल्हे को गोद में उठा ऊँचाई बढ़ाने की चिरपरिचित छेड़छाड़ बुजुर्गों को छिछोरापन और दूल्हे के दोस्तों को
सालियों से निकटता बढ़ाने का
सुनहरा अवसर लगता। "विराट-अनुष्का" के जयमाला में विराट को दोस्तों द्वारा गोद में उठा लेने पर मुझे लगा कि मित्र
मंडली
द्वारा इस परंपरा को बरसों बाद भी खतरा नही है। जयमाला के बाद फिर
स्टेज
पर लम्बा फ़ोटो सेशन। गाँव से आये बुजुर्गो का एक ही पोज़- "दूल्हा -दुल्हन" के सर पर हाथ रख कैमरे की ओर भावहीन तब तक ताकना जब तक फोटोग्राफर हाथ जोड़ स्टेज से उतरने न कहे। हमारे इस देशी पोज़ के आगे विजय माल्या का समुद्र किनारे वाला "बीच कैलेन्डर पोज़" फीका
है। नववधू के रुपये भरे व्यवहार का लिफाफा
सम्हालने की जिम्मेवारी मिलना रिश्तेदारों में ईमानदारी के लिए "पद्मश्री पुरस्कार" से कम न था। कई दफ़ा
घराती और बराती के खाने के मैन्यू में भी
सौतेला व्यवहार होता। फिर भी कुछ जुझारू भुक्कड़ उधर झांक-तांक कर आते। कई लोग सब्जी के डोंगे से सारा पनीर-पनीर
निथारने की कोशिश में लाइन में
लगे अगले व्यक्ति की घृणा का पात्र बनते हालाँकि अगला व्यक्ति अपनी बारी आने पर बिल्कुल वही हरकत करता है। सबसे
ज्यादा
मारा मारी आइसक्रीम के स्टाल पर होती। हाथ में आइसक्रीम आते ही
विधायक की टिकट मिलने वाली
प्रसन्नता से भीड़ में आइसक्रीम वाला हाथ ऊपर रख सुरक्षित निकल आते। देर रात रिसेप्शन के निपटते निपटते भोजन स्थल युद्ध के
बाद
विध्वंश की कहानी सुनाता कुरुक्षेत्र का मैदान लगता।
उस गिद्ध भोज के बाद पूरी
रात चलने वाली "विवाह रस्म" फूलों वाले छोटे मंडप के नीचे प्रारम्भ होती। तब तक भारी भीड़ कुछ हद तक छट चुकी होती। वर-वधु के
नितांत करीबी को तो पूरी रात जागना अनिवार्य है। जिन
दूर के रिश्तेदार महिलाओं का नींद से बुरा
हाल हो रहा हो, वो भी आँखे फाड़ उंघती सिर्फ इस आस में जागती कि एक नज़र लड़की के ससुराल से आए चढ़ावे के गहने देखूँ फिर
सोने जाऊँ । अच्छा, महिलाओं में ही ये
योग्यता या दैवीय शक्ति है कि एक एक गहने की डिज़ाइन पर साल भर बिना थके चर्चा कर सकती है। उत्सुक महिलाएँ गहनों को पूरी बेशर्मी से निहार अपनी बरसों पुरानी शादी और कंजूस ससुराल को
दुबारा पूरी शिद्दत से कोसती सोने चली
जाती। युवा लड़कियों
का सबसे बड़ा मुद्दा आधी रात फेरों के वक़्त अपनी एक और
ड्रेस बदल कर आना होता। उनके फैशन परेड को कुछ जोड़ी मूक बाराती आँखों का भरपूर प्रोत्साहन मिलता। एक दो बाराती का उत्पाती होना, जीजाजी का नाराज होना, फूफाजी का गुस्से में जनवासे चला जाना, चार बुजुर्गो का दुहाई दे समझाना, दो पंडितो का नेग चार पर
विवाद
किसी भी भारतीय शादी की अलिखित अनिवार्य रस्में है। नींद से मरते मेहमानों को शादी वाली रात कमरों में इंच-इंच हिसाब से सोये लोगो के बीच
अपने सोने के लिए जगह बनाना भी हुनर
हुआ करता था। छोटे बच्चे बेसुध नींद में इधर उधर लुढके पड़े होते। अभी दो घंटे
पहले पार्टी में गाजर के हलवे के स्टाल में गुत्थम
गुत्था होती मौसी गहरी नींद में गहने कपड़े लत्तो में बेसुध मुँह खोले सांसारिकता से विरक्त खर्राटे ले रही है। सोते लोगों से भरा
सन्नाटे वाले कमरे का हाल कलिंगा
युद्ध के बाद मरघट सा होता। घसर-पसर सबको धकियाते किराए के गंदे गद्दों में गुंजाइश निकाल अपने हिस्से का पट्टा
वितरण ले लो।
सुबह जब नींद खुले,
तो पूरी शादी निपट चुकी होती थी। दूसरों से पता चलता कुँवर कलेवा में ताई की गायी
गाली का लड़के के चाचा ने बुरा माना, जूता छिपायी में 2100 रुपए मिले। ट्रक में दहेज़
का
सामान चढ़ाते बारातियों की चमकीले शेरवानी, कोट और तीखे तेवर सुबह
होते
होते ढीले पड़ चुके होते थे। मंडप के नीचे और पूरे हाल में रात भर चली शादी के मुरझाये फूल, बिखरे पीले चावल, रिसेप्शन में आये गिफ्ट के चमकीले पैकेट, थालियों में कुछ वहशियों
के जरुरत से ज्यादा लिया बचा भोजन और थके, बसियाये लोग इधर उधर होते
नजर आते। उनके फैशन परेड को कुछ जोड़ी मूक बाराती आंखों का भरपूर प्रोत्साहन मिलता। नम पलकों से रोते-धोते
लड़की विदा होती। कितने बाराती यहाँ
अपना दिल छोड़े जा रहे है इसका लेखा जोखा थोड़ा मुश्किल है। बारात विदा होते ही घरवाले टेंट के बर्तन गिनवाओ, मेहमान की ट्रेन का वक़्त हो गया, जाते मेहमानों में किसे लड्डू के पैकेट नही मिले, विदाई की साड़ियाँ देती घरवाली। एक समारोह के समापन की औपचारिकताएँ
चलती
रहती। लौटते रिश्तेदार रेलवे स्टेशन के लिए सूटकेस के साथ रिक्शे
में सवार और शादीघर से वापसी का
सफर शुरू। जाते हुए सुबकते, मुस्कुराते, हाथ हिलाते, पैर छूते, गले लगते । रिक्शे के थोड़ा आगे बढ़ते ही बच्चों के हाथ पकड़ाए रुपये झपटते "लाओ देखूँ तो 100 है या 50", चाय बहुत पतली थी, घर वालो ने हलवाई को हिदायत दी
होगी, विदाई में मिली साड़ी की संभावित कीमत का आकलन, लड़का टक्कर का नही मिला, मुन्ना इतना ससुराली हो गया है कि ससुराल वाले ऐसा मालिकाना दिखा रहे थे जैसे उन्ही के घर की शादी हो, मैंने जो कान के टॉप्स दिए उनके वाले से दो ग्राम ज्यादा ही था...ऐसे तमाम किस्सों से रिक्शे वाले का रास्ते भर मनोरंजन करते लौट जाते थे।
प्रेम, मनुहार, रुठते, मनाते पारम्परिक रस्मों की डोर में बंधी, बड़ों के आशीर्वाद के साथ 10 रुपए न्यौछावार और छोटों
के नागिन डांस के अभूतपूर्व उत्साह से संपन्न हो जाती थी हमारी भारतीय मिडिल क्लास शादियाँ। कल की शादी में यह
सेल्फी
लेती हुई सोच रही थी कि वे विवाह समारोह महज़ शादियाँ न होकर
महापर्व था पारम्परिकता और संस्कारों का, आयोजन था रूठे रिश्तों को
मनाने का, मौका था मुरझाते सम्बन्धों को
सींचने का,
सम्भावनाएँ थीं नए रिश्तों की कड़ियों की और अवसर था बेटे बेटियों के सुखद भविष्य की प्रार्थना का.....
***
लेखिका का फेसबुक पेज-
***
लेखिका का फेसबुक पेज-
No comments:
Post a Comment