आजकल कोई गर्मियों में घर
के बाहर यानी आँगन में या छत पर नहीं सोता। न गाँवों में, न कस्बों में और न ही
शहरों में। न गाँव पहले जैसे रहे, न कस्बे और न शहर। हर तरफ चोरी-डकैती का डर, गुंडों का डर। वन्य प्राणियों को जंगलों में
चारे -पानी की तकलीफ हो रही है तो वे गाँवों की ओर आने लगे हैं। ऐसे में, ग्रामीण जन भी अब गर्मी के दिनों में आँगन में
सोने में डरते हैं ।
चोर -डकैतों के लिए
गाँवों में धावा बोलने का सुनहरा मौका रहता है। एक तो जिसके यहाँ भी धावा बोलेंगे, उनके चीखने-चिल्लाने पर भी आज के
माहौल के हिसाब से कोई उन्हें बचाने नहीं आएगा। दूसरी बात, पुलिस थाने भी
वहाँ से काफी दूर होते हैं। ऐसे में, लोग घरों में दुबक कर सोना ही ठीक
समझते हैं। एक बात और, आजकल बिजली की आसान पहुँच और कूलर तथा ए.सी.-जैसे
उपकरणों की आसान किश्तों में उपलब्धता की वजह से भी ज्यादतर लोग गर्मियों में
घर के आँगन में नहीं सोते। वरना पहले तो इस मौसम में हर शाम आँगन में
पानी का छिड़काव करके उसे ठंडा किया जाता था। यह रात में खाट बिछाने के
पहले की तैयारी हुआ करती थी ।
फिर उसमें बिछौना बिछाकर बाँस की डंडियों में बंधी मच्छरदानियों को ताना जाता था। बिछौना रात में जब ठंडा
हो जाए, तब उसमें सोने का एक अलग ही आनन्द मिलता था। चाँदनी रातों में
बिछौने की यह ठंडक कुछ ज्यादा ही सुकून देती थी। आसमान के तारे गिनने की
नाकामयाब कोशिशें भी खूब हुआ करती थी। सप्तर्षि तारों की पहचान बड़ी आसानी
से हो जाती थी ।
कई लोग घर का टेबल फैन बाहर लाकर बिछौने के पास
उसका उपयोग करते थे। अगर बिजली अचानक गुल हो जाए, तो बड़ी झुंझलाहट
होती थी। हाथ से झलने वाले बाँस से बने पँखे का भी इस्तेमाल होता था। इस बीच अगर अचानक बादल
घिर आएं, बादल गरजे और बूँदाबादी शुरू हो जाए, तो सबके सब खीझते हुए हड़बड़ाकर उठते और अपना बिछौना उठाकर घर के भीतर चले
जाते थे। बूँदाबादी रुकने पर बिछौना फिर बाहर! कितनों को याद है कि वो
भी क्या दिन थे?
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नज़रों से ओझल हो रहे रंग-बिरंगे कंचे और उन्हें खेलने वाले बच्चे!
अब तो गलियों और मैदानों
में कंचे (बाँटी) खेलने वाले बच्चे भी कम ही नज़र आते हैं। कुछ साल पहले तक यह बच्चों का एक लोकप्रिय खेल हुआ करता
था, जो पहले तो टेलीविजन, फिर वीडियो गेम और उसके बाद अब मोबाइल पर तरह-तरह के निरर्थक लेकिन लुभावने खेलों के सैलाब में लगभग विलुप्त हो चुका है।
गली -मोहल्लों की किराना दुकानों में पहले कांच की
बरनियों में रखे कांच के ही रंग -बिरंगे कंचे बच्चों
को खूब आकर्षित करते थे और खूब बिका करते थे। अब वो नज़ारा भी ओझल होता जा रहा है।
इसके साथ ही मैदानों और गली-मोहल्लों से गायब हो रही है मासूम बच्चों की भोली-भाली चहल-पहल। फिर
भी अगर कहीं छुटपुट ऐसे दृश्य देखने को मिल जाएं, तो बचपन की यादें सहज ही
ताजा हो जाती हैं।
आलेख -स्वराज करुण
आलेख -स्वराज करुण
वो मजा अब कहाँ ?
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साइकिल के पुराने टायरों को गलियों और
सड़कों पर दौड़ाने का वो मजा अब कहाँ, जो आज भी हममें से बहुतों के बचपन की ख़ुशनुमा यादों का अभिन्न हिस्सा है? साइकिल विलुप्त हो रही है तो
उसके टायर भी ओझल होते जा रहे हैं।
गाँवों की गलियों में भी साइकिलों की जगह
मोटरसाइकिलों का फर्राटेदार शोर सुनकर
लगता
है कि आधुनिक विकास की सुनामी से ग्राम्य जीवन की सुख-शांति, सहजता और सरलता तेजी से तबाह हो रही है। शहरों की भागदौड़ भरी ज़िन्दगी में
कॅरियर बनाने की जो अंधी दौड़ चल रही है ,उसमें अपने बच्चों को चैम्पियन बनाने के लिए माता -पिता भी उन्हें
छोटी उम्र में ही बाइक पकड़ा देते हैं ।
फिर भी स्वास्थ्य और पर्यावरण की दृष्टि से उपयोगी
साइकिलों का अस्तित्व कहीं-कहीं नजर आ ही जाता है। इस तस्वीर में साइकिलों
के पुराने टायरों से खेलने की जो खुशी इन बच्चों के चेहरों
पर नज़र आ रही है, उसे देखकर हमें भी अपना बचपन याद आने लगा है!
आपको भी जरूर याद आ रहा
होगा !
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लेखक की फेसबुक प्रोफाइल-
(तस्वीरें लेखक की फेसबुक वाल से- इन्हीं आलेखों के साथ थे.)
वाह यादे ताज़ा हो गयी
ReplyDeleteसुंदर