Wednesday 16 September 2020

"सिनेमा हॉल- उन दिनों "- शरद कोकास

बैतूल में हमारे घर के ठीक पीछे एक टॉकीज हुआ करती थी, जिसका नाम था 'रघुवीर टॉकीज'। इसमें सिर्फ दो शो हुआ करते थे- पहला खेल, जो शाम को 6:00 बजे शुरू होता था और दूसरा खेल रात 9:00 बजे।

खेल शुरू होने के ठीक पहले रिकॉर्डिंग होती थी जिसमें रिकॉर्डिंग शुरू होने का गाना था 'जय गणेश जय गणेश देवा...' और ऐसे ही एक गाने से रिकॉर्डिंग खत्म होती थी 'जय जय हो गणेश काटो हमारे कलेश आए शरण तिहारी बलिहारी हो ...', जो इस बात का सूचक होती कि बस अब फिल्म शुरू होने वाली है जल्द से सब लोग हाल के भीतर आ जाएं।

टॉकीज में तीन क्लास होती थी। वर्गभेद क्या होता है, इस टॉकीज़ की बैठक संरचना से मैंने जाना। सबसे ऊपर बालकनी, उसके बाद नीचे सेकंड क्लास, जिसके पीछे होती थी लेडीज क्लास जिसमें सिर्फ महिलाएं ही बैठ सकती थी और सबके सामने पर्दे के बिल्कुल करीब थर्ड क्लास जिसकी टिकट शायद उस वक्त 20 पैसे हुआ करती थी। इस क्लास में बेंच नहीं थी तो जमीन पर बोरा बिछा कर बैठना पड़ता था।

सेकंड क्लास में बेंच लगी थी लेकिन उसमें टिकने के लिए पीठ नहीं थी और खटमल इतने ज्यादा थे फिल्म देखने का सारा आनंद चूस लेते थे। इसलिए हम लोग थर्ड क्लास में जमीन पर पसरकर कर फिल्म देखने का ज्यादा मजा लेते थे ।अगर कभी सेकंड क्लास में बैठे तो घर लौट कर सबसे पहले घर से बाहर कपड़े उतारकर झटकाते थे और फिर भीतर जाते थे।

सेकंड क्लास की दो तीन लाइनों को फर्स्ट क्लास बना दिया गया था और दाम कुछ बढ़ा दिये थे। फर्स्ट क्लास में भी बेंचें थी और उनमें बैक भी थी टिकने के लिए लेकिन यहाँ प्रॉब्लम यह थी कि नीचे और पीठ पर दोनो ही जगह खटमल काटते थे। इसलिए अपनी पसंद बोरे वाली क्लास ही थी।

उस जमाने में सिनेमा में सिर्फ एक ही मशीन होती थी और रील खत्म हो जाने के बाद ऑपरेटर, जिनका नाम नायडू जी था, दूसरी रील चढ़ाते थे। कस्बे की टाकीज़ थी इसलिए कभी-कभी पुरानी प्रिंट ही आ जाती थी, जिसमें बहुत सारी रील कटी होती थी ।फिल्म देखते हुए कहां पर रील कटी है यह पहचानने के हम लोग एक्सपर्ट हो गए थे और जैसे ही हमें आभास होता कि रील कट गई है हम नायडू जी के नाम से ढेर सारी गालियां देते। नायडू जी तक वह बात भले ही ना पहुंचे, लेकिन हमें तसल्ली हो जाती थी ।

उन दिनों किसी अच्छे डांस या मुजरे टाइप के सीन पर जनता द्वारा पैसे फेंकने का भी प्रचलन था। सबसे सामने थर्ड क्लास में बैठने का यह फायदा भी होता था कि हम लोग चिल्लर इकट्ठी कर लेते थे और अपना फिल्म देखने का खर्चा निकल आता था। साथ मे आलुबोंडे का भी। हालांकि टॉकीज पास होने के कारण हमारे मोहल्ले के कई बड़े भैया लोग वहां गेटकीपर और बुकिंग का काम करते थे, इसलिए कई बार हमको फ्री पास मिल जाता था। यहाँ तक कि घूमते फिरते तकरीबन हर रोज़ हम लोग कोई सीन या गाना देख ही लेते थे ।

फिल्म के बीच में इंटरवल होता था, जो आज भी होता है लेकिन उस समय बाहर निकलते समय एक गेट-पास पकड़ा दिया जाता था, ताकि बिना टिकट वाला कोई इंटरवल में भीतर न घुस सके। हम में से जब किसी को कोई काम होता या फिल्म बोर लगती, तो अपना गेट-पास अपने किसी भाई या दोस्त को पकड़ा देते, फिर बची हुई फिल्म अगले दिन देख लेते।

उन दिनों फिल्म की समीक्षा किसी मैगजीन में पढ़कर या अखबार में पढ़कर फिल्म देखने का चलन नहीं था। सिनेमा हॉल के बाहर एक जाली वाले बक्से में फिल्म के पोस्टर लगे रहते थे जिसमें बहुत अच्छे कागज पर फिल्म के सीन हुआ करते थे । बस उन्हें देखकर हम लोग अंदाज लगाते थे की फिल्म अच्छी है या खराब।

बचपन मे हम लोगों को फ़िल्म की पूरी कहानी रटी होती थी और गर्मी के दिनों में छत पर बिछे ठंडे बिस्तर पर लेटकर हम लोग फिल्मी कहानियां सुनते सुनाते थे। अगर कोई बच्चा बाहर से किसी शहर से कोई नई फिल्म देखकर आता था, तो उसकी बहुत डिमांड होती थी।

अब यह सिनेमा टॉकीज़ कब की बंद हो चुकी है और इसकी यह गोदामनुमा बिल्डिंग खण्डहर हो चली है।

अगली बार बैतूल की दूसरी टॉकीज़ ज्योति टाकीज के बारे में।

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