Tuesday, 25 April 2023

"वो कॉमिक्स वाले दिन" -मधु

परीक्षाओं के समाप्त होने का सबसे बड़ा आकर्षण होता था घर में खुल्लम खुल्ला, ढिठाई से कॉमिक्स पढ़ने की छूट। अब स्कूल की किताबों के बीच कॉमिक्स छिपाकर पढ़ने की जरूरत नही। नागराज, शाकाल, फेंटम, चाचा चौधरी, बिल्लू, पिंकी, मोटू पतलू, राम रहीम, राजन इकबाल, अंगारा ,भोकाल, बांकेलाल ये नाम याद आते-आते इन कॉमिक्स के रंग-बिरंगे, चटकीले चित्रों से भरपूर कवर पेज याद आते जा रहे है।

 कॉमिक्स के लिए आकर्षणशब्द बालमन के उस लालच की सटीक व्याख्या करने में थोड़ा सा नाकाफी है। लोभ, लालसा, चाहत, तड़फ थोड़ा आस-पास पहुँच रहे हैं के हम कॉमिक्स के लिए किस कदर दीवाने थे या जान छिड़कते थे। गर्मियों की छुट्टी शुरू होते ही गुल्लक में जमा सिक्कों की गिनती कर हिसाब लगाया जाता कि इसमें कितनी कॉमिक्स किराए पर आ पाएगी। घर के बुजुर्गों को कॉमिक्स में खर्च करना पैसों की बर्बादी लगती थी। कॉमिक्स का नाम सुनते ही अम्मा का बड़बड़ाना शुरू “..अभी उठा लाएंगी और दो मिनिट में पढ़ के खत्म फिर रद्दी में बेचने की। एक दिन के बाद इधर उधर पड़ी पड़ी दिखती है। बस अब नही मिलेंगे कॉमिक्स के लिए पैसे। जितनी छूट दो उतना सर चढ़ेगी। हमारे बचपने में जैसे चीज़ों के लिए तरसे होते, तो सामानों की कद्र होती।” अम्मा से कॉमिक्स किराए से लाने के पैसे तो न मिलते रख के चार गालियाँ और सुना देती। कभी कभी हम बच्चे मुँहजोरी की ठान कर नानी से भिड़ जाते- जाने हमसे ज्यादा न तरसी होंगी आप और कितना तरसी हो जो सारा फ्रस्ट्रेशन हम पे निकाल रही हो।

इन लम्बी ड्रामेबाज़ी में कभी कभार दो-चार रुपये मिल जाते थे। अच्छा आपको बताते हुए याद आ रहा है के तब मौहल्ले के छुटभैय्या नेता टाइप के बच्चे कॉमिक्स किराए से भी देने का काम करते थे। शायद 50 प्रतिशत लड़कों के जीवन का प्रथम व्यवसाय कॉमिक्स किराए से देना ही रहा होगा। तपती गर्मियों की लम्बी दोपहर जब घर के सारे बड़े कूलर में सोते होते, तब कॉमिक्स किराए से देने वाले भाई टाइप छोकरों के घरों के बरामदे में बच्चों की बड़ी चहल-पहल होती थी। किराए से कॉमिक्स लेते वक्त सीमित पैसे में सबसे ज्यादा मोटी कॉमिक्स ढूँढने के प्रयास होते। कॉमिक्स की गड्डियों को फैलाकर पूछताछ और मांग होती। साबू और दूसरे ग्रह के लुटेरे, चाचा चौधरी और मतरूलाल की कार, बिल्लू और राका की वापसी, पिंकी और सर्कस की सीढ़ी। कभी-कभी बिना कॉमिक्स लिए अपना सिक्का पकड़े बैरंग भी लौटते। वांछित कॉमिक्स पहले ही कोई ले जा चुका होता था या मोटी कॉमिक्स का किराया भी उन चंट लड़कों द्वारा ज्यादा रख दिया जाता। हाँ, तय वक़्त पर कॉमिक्स न लौटाई, तो वो मुए डबल किराया वसूलते थे। मुम्बई के हप्तावसूली वाले गुंडों ने बचपन में इसी धंधे से प्रैक्टिस की होगी। हम मुँह लटकाए घर लौटते और मन ही मन सोचते कि शायद कोई और दोस्त उस महँगी कॉमिक्स को किराए से लेगा, तो जब वो पढ़े, तो हम भी उसके साथ पास चिपके बैठ पढ़ लेंगे। ऐसा होता भी था कि एक कॉमिक्स दो लोग साथ साथ पढ़ते। हाँ, लेकिन जिसने पैसे दिए है कॉमिक्स के पेज उसी के इच्छा से पलटते। याचनाकर्ता पाठक पूरी मासूमियत से कंधे से कंधा चिपका कर इस सामूहिक पठन का आनंद उठाता ।

बहुत कम ऐसा होता था कि नयी कॉमिक्स खरीदने दुकान पहुँचते। दुकान में लटकती सारी कॉमिक्स तो खरीदी नही जा सकती थी । काउंटर पर फैली सभी कॉमिक्स में जो ज़रा मोटी लगती, जिसके कवर पेज में चाचा चौधरी अपनी काली जैकेट, लाल पगड़ी और पालतू कुत्ते रॉकेट के गले में बंधे पट्टे की चैन पकड़े जा रहे हो या फिर साबू गुंडों को अपने काले लम्बे लम्बे गम बूट्स वाले पैरो से हवा में फुटबॉल की तरह उछाल रहा हो— चुन ली जाती। एक बात बतानी बहुत जरूरी है कि साबू द्वारा गुंडों को इस तरह हवा में उड़ाने के क्रम में साबू के जूते की नोक परकिकशब्द गहरे काले रंग में लिखा होना जरुरी होता था। मानो किक न लिखा हो तो पाठक कही इसे साबू का प्यार न मान ले। साबू ज्यूपिटर ग्रह का निवासी था और उसे गुस्सा आने पर दूर कहीं ज्वालामुखी फटता था। कॉमिक्स के मवाली चरित्र और गुंडे आड़ी धारियों वाली टी शर्ट, गॉगल पहने, काले मस्से और गले में रुमाल बांधे गंजे सर वाले ही होते थे। सामान्यतः जब चन्नी चाची घर पर हो, तो दो चोर खिड़कियों से भीतर झाँकते थे। दुकान के काउंटर पर बिखरी मनोहारी चित्रों वाली कॉमिक्स में अपनी समझ से सबसे आकर्षक कॉमिक्स हम चुन लेते थे। दुकानदार को कीमत अदा करने, चिल्हर लौटाने, इस सब लेनदेन में लगे थोड़े से समय में भी दूसरी कॉमिक्स के दो चार पेज अलट-पलट सरसरी नजर डाल कर ही संतोष कर लेते। इस पन्ने उलटने पलटने के जरा से वक़्त में कॉमिक्स तो नही पढ़ पाते, मगर फिल्मों के 5 मिनिट के ट्रेलर वाला सुकून मिल जाता । घर आ दो मिनिट में कॉमिक्स पूरी पढ़ फिर मुँह उतार घुमने लगते। दोस्तों से कॉमिक्स की अदला-बदली भी गहरी दोस्ती या दुश्मनी का कारण बनती।

कॉमिक्स के किसी भी पेज़ के सबसे नीचे जितनी बार लिखा होता— “चाचा चौधरी का दिमाग कंप्यूटर से भी ज्यादा तेज़ चलता है” —हम उतनी बार इस ब्रहम वाक्य पर पूरी आस्था से यकीन करते थे । गोलू मोलू सी चन्नी चाचीसाड़ी पहने चलती कम, लुढ़कती ज्यादा लगती थी। चन्नी चाची साबू को खाने के लिए ऊँची रोटियों का ढेर देती, तो उनकी मेहनत का अनुमान लगा चित्र में रोटियाँ गिनते थे। जाने हम ही इतने ठल्ले बच्चे थे या आप भी ऐसे ही थे? बिल्लू की आँखे सदा बालों से ढकी रहती जिसे आज तक किसी ने नही देखी। हम कॉमिक्स में घुस कर बिल्लू की जुल्फे हटा उन सपनीली आँखों को देखना चाहते थे। बिल्लू के दोस्त गोल मटोलगब्द्दुके सामने बिल्लू एक तीक्ष्ण बुद्धि लड़का लगता था। जाने कितनी लड़कियों का पहला टीन ऐज क्रश था हमारा स्मार्ट बिल्लू "फैंटम चलता फिरता प्रेत " पढ़ते पढ़ते ऐसा लगता था कि हम भी जंगल में सहायता के लिए जोर की आवाज़ देंगे तो फैंटम अपने पालतू डेविड भेड़िये के साथ आँखों में नकाब और बैंगनी चुस्त परिधान पहने सामने आ जाएगा । फैंटम की खूबसूरत पत्नी डायना जंगल में बने अपने मचान हाउस से लकड़ियों से बने बास्केट में चढ़ कर उससे लिफ्ट की तरह नीचे उतरती ।

भड़ाक, ...गुर्र्रर्र्र्रर्र्र, ....सुबुक सुबुक.., छपाक, ...बूम, किक, ढिशुम, चटाक, धड़ाम, बू हू हू, सर्रर्रर, हाहाहा, ठहाका, सुडुप-सुडुप, ये सारे शब्द मानव जीवन केनवरस’’ की व्याख्या करने पर्याप्त थे। दो चरित्र यदि आपस में धीमे धीमे कुछ बात कर रहे हो तो पाठकों को पढ़ने मिलने वाला शब्द था खुसुर पुसुर, खुसुर पुसुर।” पिंकी घेरदार छोटी फ्राक और हेयर बैंड पहने अपनी गिलहरी "कुटकुट" के साथ आस पड़ोस में उत्पात मचाए रहती। ..इन चरित्रों को पढ़ते-पढ़ते हम चित्र में बसाए छोटे से साफ सुथरी सड़कों वाले सपाट शहरों में साथ साथ घूमने लगते।

नागराज, सुपर कमांडो ध्रुव, डोगा, बांकेलाल ये लड़कों के सुपर स्टार हीरो थे ... after all boys are boys . they love action .. .लड़कों वाली कॉमिक्स के नाम भी बड़े खतरनाक हुआ करते थे जहरीला बदला” .नागराज की फुंफकार”, “राका की विनाशलीला”, “प्रलायनकारी मणि”, खूनी कबीला, शाकाल की वापसी”— नाम लेते ही “जलजले” का अनुमान हो जाए और चित्र में क्रोध से लाल-पीले चीखते खतरनाक अजीब से चेहरे। इनके एक्शन किसी भी हॉलीवुड फ़िल्म के रोमांच को जीने जैसा होता था। इन मारधाड़ वाली कॉमिक्स के फ्रंट पेज पर आग, ब्लास्ट की भड़ाम और नुकीले दाँत वाला कोई विकराल चेहरा होता। आज भी याद है किसी कॉमिक्स के अंतिम पेज पे यदि समाप्त की जगह अधूरी कहानी छोड़ “क्रमशः लिखा होता, तो खून खौल जाता था। जैसे किसी ने पूरे पैसे ले आधे रास्ते में उतार दिया, जैसे आम दिखा कर बेर खिला दिया, जैसे सोना बता पीतल थमा दिया। बिल्कुल “ठगा” जाने वाली फिलिंग आती। अब क्रमशः के आगे की कहानी मालूम करने के लिए नयी कॉमिक्स खरीदने के पैसे हम बच्चे कैसे मांगे। बहुत नाइंसाफी थी जी मासूम बच्चो के साथ। किसी भी बच्चे के पास कॉमिक्स की बढती संख्यासम्पत्ति विस्तारजैसा होता था । आज बच्चों को कॉमिक्स की इस मायावी दुनिया, रंगीन चित्रों के तिलिस्म,सुबुक सुबुक” जैसे ध्वन्यात्मक शब्दों और कल्पनाशीलता के नशे का जादू पता ही नही है। आज का बचपन सोफे पर मोबाइल, प्ले स्टेशन, टैब में गेम खेलते निष्क्रिय खामोश बैठा मिलता है। कॉमिक्स की समृद्ध विरासत सैमसंग और गैलेक्सी के वज़न के नीचे दम तोड़ रही है। हिंदी कॉमिक्स के इन अजर अमर चरित्र को बेचने वाले दुकानदार पिछले सालो में आई बिक्री में गिरावट से हतप्रभ है। कॉमिक्स पढ़ना वास्तव में बच्चो की कल्पनाशक्ति, अध्ययनशीलता, एकाग्रता, रचनाधर्मिता और सृजनात्मकता को बढ़ाने सबसे बढ़िया टॉनिक है। कोमा में जाती इन भारतीय कॉमिक चरित्रों को बच्चो की नर्म उंगलियों के स्पर्श के आक्सिज़न की जरुरत है। छोटे बच्चों को चाचा के घर के रॉकेट की “भौं-भौं” से परिचित करवाइए, गुंडे मतलब आड़ी धारियों वाली टीशर्ट का गूढ़ ज्ञान दीजिये ...कुल जमा अपने बच्चों के बचपन को एक बार फिर बचपन जितना ही भोला बना कॉमिक्स की सपनीली दुनियाकी सैर करवाइए।

लौट के फिर कभी न आने वाले उन दिनों की सुनहली यादें दोस्तों के साथ साझा कर उन्हें भी बचपन की गलियों में हाथों में कॉमिक्स पकड़े घुमा लाइये। आज "विश्व पुस्तक दिवस" के अवसर पर हर बच्चे की पहली पसन्दीदा किताब की स्मृतियों के साथ किताब प्रेमियों के लिए...

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MADHU -writer at fim association MUMBAI

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Wednesday, 15 June 2022

"वो दिन, वो बारात..." - अमिताभ शुक्ला

 

बहुत छोटा था जब पहली बार शादी की बारात में जाने का सौभाग्य मिला, शायद छठवीं में थाबारात जाना मेरे लिए किसी टूर से कम नहीं थालोग गांव वालों को बारात जाने का न्योता देने घर जाते, तो लोग उन्हें सम्मान से बैठाकर पूछ लेते थे कि कितने लोग जा सकते हैंज्यादा तगड़ी लगन होती, तो घर के लोग बंट कर सारी बारात में जाते थे

उस समय शादी में विदाई नहीं होती थीएक या तीन साल बाद गौना होता था, उसमें विदाई होती थीशादी गर्मी में होती थी, क्योंकि किसान उस समय थोड़ी फुरसत में होते थे बारात तीन दिन रुकती थीमैंने सोचा तीन दिन रुके फिर भी दुल्हन नहीं लाए तो क्या फायदा, शादी में दूल्हा जाता और शादी करके गर्व से वापस खाली हाथ आ जाता।

उस समय बिजली नहीं थी, गैस के हंडे थेकिसी खाली खेत पर जाजिम बिछा कर कनात शामियाना लगाकर जनवासा बना देते थे, जिधर तीन दिन बाराती रहते थे

जाने के बाद जनवासे में लड़की का बाप आता था कुछ लोगों के साथ, लड़के का बाप मुगले आजम के पृथ्वीराज कपूर की तरह बहुत अकड़ कर बैठा रहता था, जैसे लड़का नहीं पैदा किया हो ईरान जीतकर आया होमुर्गे की तरह छाती फुलाकर गर्दन अकड़ा कर लड़के का बाप लड़की के पिता को हीन दृष्टि से देखता था

फिर दोनो पक्ष के पंडित बैठकर संस्कृत में शास्त्रार्थ करते थेकोई गांव के लड़के तलाशे जाते थे जो संस्कृत विद्यालय में या कॉलेज में संस्कृत पढ़ते थेवो दोनो झगड़े की तरह संस्कृत में वार्ता करते, सवाल जवाब, ये बारातियों के समझ में कुछ नहीं आता था, फिर भी मनोरंजन के लिए देखते थेअगर लड़का वाला पंडित जीता, तो ही लड़के की शादी का कार्यक्रम आगे बढ़ता थाइसलिए जानबूझ कर लड़की के पक्ष का पंडित हार मान लेता और लड़के वाले पंडित को प्रणाम करके बोलता था आप श्रेष्ठ हैंयदि लड़की के पक्ष का पंडित होशियारी दिखाता, तो लड़की के बाप चाचा रहते, जो अपने पंडित को धमका भी देते थे कि शादी होने दोगे की सारी विद्वता आज ही दिखा दोगे

बाराती अपने पंडित के जीतने पर बल्लियों उछलने मैदान मार लियाजबकि होता सब फिक्स था

दिन भर खाते थे, रात को कोई नाच वाले आते थे या आल्हा ऊदल गाने वाले। हमारी बारात में जादूगर गया था, जो रात भर जादू दिखाता रहा

जैसे ही बारात पहुंचे, तो पहले जल जलपान होता, दोने में लड्डू नमकीन बूंदी वगैरह, फिर चलता था रस, मतलब ड्रम में चीनी को पानी में घोल देते थे और बर्फ, केवड़ा जल डाल देते बन गया रस या शरबत, उसी को चार कुल्हड़ खींच देते थे, इसके उपरांत पान सुपारी सेवन।

रात के भोजन में कुम्हड़े की तरकारी, जिसमे छिलका बीज जाली सब को बड़े से कड़ाह में लकड़ी के कड़छूल से कुचल दिया जाता, नमक भी नहीं डालते थे वो अलग से देते थेकिस्मत हुई, तो कटहल या परवल की रसदार सब्जी भी मिल जाती। आम, गुड़ और सूखी मिर्च का एक मीठा अचार दिया जाता था, जो पूरी-कचौरी के साथ बेहद लुत्फ देता था

दोने में पीसी हुई चीनी, कचौड़ी देते थे, जो आटे का सॉलिड पेड़ा होता था, जिसे तल देते थे और वो बेहद सख्त हो जाता था उसमे कोई फिलिंग नहीं, बारातियों के मजबूत जबड़े उन कचौड़ियों के घमंड को चूर चूर कर देते थेफिर पूरी मिलती एक फिट लंबी जिसे सोहारी बोलते थेकचौड़ी को सब्जी के साथ और सोहारी को चीनी के साथ झोरते थे, सोहारी अक्सर कच्ची होती थी, सही सोहारी मिलने से बोलते थे बहुत सौकीन सोहारी है

सुबह चाय और नाश्ते में गर्म जलेबी समोसे, जो वहीं हलवाई बनाते थेदूसरे दिन दोपहर में कच्चा खाना बोलते थे, चावल दाल के साथ कोई सूखी सब्जी और सदा विद्यमान लड्डू

दोपहर में बैठकर ताश खेलते जिसके नाम भी अजीब थे, जैसे दहला पकड़ या टोंटी नैन (29), खेलते चार या छै लोग थे, लेकिन आठ-दस लोग खड़े रहते थे, जो गौर से सबके पत्ते देख लेते थे, फिर उनकी कोशिश होती थी खेल बिगाड़ने की- गलत चाल चल दिए हो, खेल गए न रमचरना के हाथ से, अरे ये रमचरना दिखने भर में उल्लू है, मगर है बहुत घाघकई बार खिलाड़ी की जगह पीछे खड़े लोग खेलने लगते थे

रात को फिर वो ही दंत-भंजक कचौड़ी, सोहारी, सब्जी, चीनीतीसरे दिन सुबह फिर चाय लड्डू नमकीन और पकौड़े। इसके बाद ही बाराती घर जाते, खाने के गुण दोष की चर्चा मीमांसा करते हुए

विदाई में सबको दस रुपया मिलता थाइस दस रुपए का लोभ और आकर्षण बहुत थाकभी बीस रुपए मिल जाते, तो दिल बाग बाग हो जाता था

जो घर के लोग होते थे उन्हे पचास और समधी दामाद जैसे प्रतिष्ठित लोगों को और ज्यादा पैसे मिलते दूल्हे उस समय सफारी सूट पहन कर खुद को प्रिंस चार्ल्स समझते थे कोई कोई रात को भी फैशन के कारण काला चश्मा लगा लेते थे

उस समय चमड़े के जूते चप्पल चलते थे, बारात जाने के लिए कोई अपने पड़ोसी से जूता मांगता कोई शर्ट, उधार में मांगते थे

उस समय सियार बहुत होते थे, सियार और कुत्ते शादी के खाने की सुगंध से आकर्षित होकर आ जाते थे, थोड़ी दूर में छुपकर बैठे रहते थे,रात को कचरे से सियार और कुत्ते जूठे दोने पत्तल चाटते रहते थे,फिर आधी रात के बाद कुत्ते और सियार का सामूहिक गान का आरंभ होता,एक तरफ से सियार हुआ हुआ करते, दूसरे तरफ से कुत्ते ऊ ऊ ऊ का करुण गीत छेड़ देते थे,ये ऑर्केस्ट्रा रात भर जारी रहता था

लोग चारपाई में सो जाते,जूते नीचे रख देते थे

कई बार किसी के जूते या चप्पल सुबह नहीं मिलते थे, जो जूता पहने होता था और जिसके पास चप्पल नहीं होती थी वो उठकर किसी की भी सुख निद्रा में लीन बाराती के चप्पल पहन कर लोटा लेकर दिशा निवृत होने प्रकृति की सुषमा के बीच निकल जाता, कई बार बाराती को उस गांव के लोग चेतावनी देते थे कि उनके गांव के सियार बहुत कमीने जूताखोर हैं, अपना अपना जूता बहुत हिफाजत से रखिएगा

दातौन भी काटकर करीने से कुल्हाड़ी से छांट कर बाराती को दी जाती, नीम की दातौन को दांत से चबाते हुए उस गांव के लोगों की बताई दिशा में निकल जाते थे, दातौन चबाते हुए और यत्र यत्र सर्वत्र थूकते हुए दैनिक क्रिया से निवृत होते, फिर कुएं आकर मिट्टी से लोटे को मांजते, मिट्टी से हाथ धोकर कुल्ला करते, दातौन को बीच से दांत से फाड़कर जीभ भी साफ कर लेते,इन सारी निजी क्रियाओं को बाराती सार्वजनिक रूप से करते थे

दिशा मैदान में अगल बगल बैठे रहते बल्कि कोई नेक बंदा किसी बच्चे को सलाह भी दे देता था, कुर्ता समेट कर बैठो

चुहल मजाक बुराइयां सब चलता था

उस समय कोई दूल्हे के जूते नहीं चुराते थे

दूल्हे को ट्रेनिंग देकर उसकी मां भेजती थी नहीं तो औरत लोग दूल्हे से कभी सिल बट्टे के बट्टे की पूजा करवा देती कुलदेव बोलकर, या दुल्हन का जूठा दूध या शरबत पिला देती थी, उसके बेचारे की मां बहन को लेकर मजाक करती थी, दूल्हे भी छोटे होते थे दसवीं नौवीं पढ़ने वाले, लड़की भी छोटी, उसको साड़ी चुनरी चादर से पूरी तरह से ढंक कर रखते थे, हवा भी नहीं लगना चाहिए ऐसा बोलते थे, मुझे लगता था रात भर में ये मर जायेगी, लेकिन सब जिंदा निकलती थी

सुबह सुबह कोई देखता कि उसके जूते सियार ले गए और यदि वो मांगे के जूते होते, तो बेचारा बाराती बहुत दुखी हो जाता।गांव के लोग मजाक उड़ाते थे वो अलग

ये बेचारा खड़ा रहता ये सोचते कि कितने रुपए का होगा ये बाटा का जूता

कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे...

 

 


 

"वो कॉमिक्स वाले दिन" -मधु

परीक्षाओं के समाप्त होने का सबसे बड़ा आकर्षण होता था घर में खुल्लम खुल्ला , ढिठाई से कॉमिक्स पढ़ने की छूट। अब स्कूल की किताबों के बीच कॉमिक...