उन दिनों गाँव में किसी
के पास साइकिल के अलावा कोई और दोपहिया वाहन नहीं हुआ करता था। रहा भी हो तो मुझे कतई याद नहीं। अलबत्ता इतना जरूर
याद है कि उन दिनों हम मोटर साइकिल को ‘फटफटी’ कहते थे और तब कोई बाहर
का बाशिंदा ही इसे लेकर आता था। अमूमन यह ‘राजदूत’ की सवारी होती थी। ‘बुलेट’ का जलवा आज की मर्सीडीज से ज्यादा
था, पर सर्वसुलभ सवारी साइकिल ही थी और उन दिनों ज्यादातर हरक्यूलस की दिखाई पड़ती थी। घर का सारा
सामान, सूचनाएँ, सुख-दुख
की खबरें, दूध, अखबार सब इसी पर सवार
होकर आते थे और बगैर साइकिल के डाकिये की तो आप कल्पना भी नहीं
कर सकते थे। डाकिया अपना सगा-सा लगता था और उससे शर्बत-चाय-पानी का रिश्ता हुआ करता था। अब तो कूरियर वांले फोन
लगाकर बड़े ही रूखे ढंग से माल उठा लेने को कहते हैं, जिसमें ‘अन्यथा’ वापस भेज देने की चेतावनी छुपी रहती है।
सुबह उठकर घर में साइकिल
को धोने-पोंछने, कपड़ा मारने की कार्रवाई वैसी ही होती थी जैसे भोर में गाय की पीठ में हाथ फेरकर सानी-पानी किया जाता है। आदतन
एकाध बार घंटी भी टुनटुना दी जाती थी, यह देखने के लिए कि वह पहले की तरह बज रही है या
नहीं और सुनने के लिए लिए जो कानों में रस घोलती थी। एक
नलकीयुक्त कुप्पी में तेल रखा होता था, जिसे यदा-कदा चेन व गियर आदि में डाल दिया जाता
था और यह आयोजन आमतौर पर साप्ताहिक हुआ करता था। दीवाली के मौके
पर जब घर में पुताई होती
थी, अमूमन साइकिल की सीट का कवर भी बदल जाता था।
जैसे राजाओं-सामंतों की
ड्योढ़ी में बाँकी धज
वांले घोड़े तैनात होते थे, अपने घरों के आगे साइकिल बड़े शान से खड़ी पायी जाती। साइकिल पिताजी की
अधिकारिक सवारी होती थी, जिसमें सवार होकर वे
दौरों पर जाते थे। कभी-कभी जब चुनावों के समय वे पोलिंग ऑफिसर बन जाते तो एक अदद जीप घर के सामने खड़ी हो जाती और
मौका देखकर हम लोग भी लटक लिया करते। सरकारी गाड़ी में घूमने
का सुख भी अलग किस्म का
होता है। परिवार में यह
किस्सा दंत-कथा की तरह मशहूर था कि एक बार पिताजी महकमे के काम से साइकिल पर किसी दौरे पर थे तो रास्ते में रात के
समय कुछ भारी-भरकम पत्थर-सा दिखाई पड़ा जो कि कुछ नजदीक
जाने पर पता पड़ा कि बाघ था और वह टार्च की रोशनी के
कारण फलांग मारकर जंगल में विलीन हो गया। इस घटना के बाद संभवतः साइकिल में एक डायनेमो लगाकर रोशनी की व्यवस्था की
गयी थी पर इसके प्रयोग से साइकिल चूँकि भारी चलती थी, इसलिए कालांतर में उसे हटा दिया गया। बीच-बीच में साइकिल पर इस तरह के प्रयोग होते रहते थे और
किसी भी लोकतांत्रिक मुल्क की निरीह प्रजा की तरह वह
बेचारी चुपचाप इन्हें सहन करने को अभिशप्त होती थी।
एक बार इसके पिछले पहिये की चकरी में कुछ क्रांतिकारी परिवर्तन कर
तीन या चार गियरों वाली व्यवस्था की गयी जो अज्ञात कारणों से बहुत दिनों तक नहीं चल पायी। कहा जाता था कि साइकिल में
गियर की व्यवस्था करने से वह चढाव पर बड़ी आसानी से निकल
जाती है और कुछ आगे चलकर
जब अपन ने साइकिल की
सवारी गाँठने का हुनर हासिल कर लिया तो बड़ी तमन्ना थी कि किसी तरह एक गियर वाली साइकिल हासिल हो जाए। ठीक इसी अवसर पर
जनहित में एक बड़ा राज जाहिर कर देना चाहिए कि मध्यमवर्गीय
परिवारों के मकानों में एक गुप्त तहखाना जैसा होता
है, जो इतना बड़ा होता है कि इसमेें इस तरह की असंख्य इच्छाएँ आसानी से दफ्न की जा सकती हैं।
साइकिल सीखने और चलाने की कुल चार अवस्थाएं या ‘स्टेज’ होती हैं और पता नहीं
किसी ने इन्हें लिपिबद्ध किया है अथवा नहीं। लगे हाथ यह श्रेय
मैं खुद हासिल कर लेना
चाहता हूँ और इन दिनों जब
इतिहास की इमारत को धो-पोंछकर कुछ नया रंग देने का काम जोरों पर चल रहा हो तो इसका एकाध कोना अपने लिए भी सुरक्षित
कर लेने में कोई हर्ज नहीं है, ताकि सनद रहे और वक्त-जरूरत यह बताया जा सके कि ये हजरात भी कागजों पर कालिख पोतने का गैर-जरूरी
काम किया करते थे। साइकिल सीखने की पहली अवस्था ‘कैंची’ कहलाती थी, जिसके दो उप-चरण थे। इस पद्धति का नामकरण किस तरह किया गया होगा यह शोध का विषय है
और विद्वान पाठक इस पर
अपनी राय जाहिर कर सकते
हैं। ‘कैंची’ सीखने के लिए बायें हाथ
से साइकिल के हैंडल को पकड़ा जाता था और दायीं ओर काँख से सीट
को दबाकर दायें हाथ से
साइकिल की डंडी को मजबूती
से पकड़ लिया जाता। अब बायें पैर को जरूरत पड़ने पर जमीन में टेकने के लिए अथवा गाड़ी को आगे की ओर धकेलने के लिए हवाओं
में स्वतंत्र रखकर दायें पैर से संतुलन साधने का
अभ्यास किया जाता था। इस विधि से एक बार संतुलन का
अभ्यास आ गया तो बायें पैर को पैडल पर स्थापित कर उसे 180 अंश के कोण में घुमाया जाता। यह विधि ‘कैंची हॉफ पैडल’ कहलाती थी, जिसमें सारा शरीर साइकिल के एक ओर लटका होता।
संतुलन सधने के कुछ बाद ही ‘फुल पैडल’ का अभ्यास किया जाता।
संक्षेप में, साइकिल चलाने की वह विधि, जिसमें बायाँ हाथ हैंडल पर, काँख सीट पर, दायाँ हाथ डंडे पर हो और शरीर एक तरफ लटका हो, ‘कैंची’ कहलाती है।
साइकिल चलाने की दूसरी
विधि 'डंडी' दरअसल तीसरी विधि 'सीट' की सहायक क्रिया होती है।
उस जमाने में बच्चों की साइकिलें चूँकि अलग से नहीं होती थी
तो सीट पर सवार होने से पहले डंडी पर सवार होकर ही
गाड़ी चलाई जाती थी। दोनों में से किस विकल्प का चयन होगा,
यह इस बात पर निर्भर करता
था कि साइकिल की ऊँचाई कितनी है और बच्चे की लंबाई। इस विधि का एक
अन्य उपयोग कठिन चढ़ाई को पार करते वक्त भी किया जाता है। वहीं तफरीह का मूड होने पर अथवा ढलान में इत्मीनान से
गाड़ी चलाने के लिए कभी-कभी 'कैरियर' का इस्तेमाल किया जाता
है। जिनका जन्म 60-70
के दशक में हुआ हो और जिन्होंने उपर्युक्त विधियों के अतिरिक्त चलती
गाड़ी में उतरी हुई चैन चढ़ाने का करतब न किया हो, उनका जीवन व्यर्थ है।
जिस तरह मरा हाथी सवा लाख का होता है, कबाड़ में जाने वाली साइकिल भी हमारे बड़ी काम की होती थी। सबसे कीमती चीज़ साइकिल का टायर होती थी, जिसे एक डन्डे के सहारे चलाते हुए भागा जाता था। टायर को चलाने के लिए जहाँ डन्डे का इस्तेमाल क्षैतिज विधि से लगातार आघात के जरिए
किया जाता था वहीं पुरानी रिंग मिल जाने पर ऊर्ध्व
छड़ी का सतत इस्तेमाल होता था। हालांकि रिंग बड़ी मुश्किल से मिलती थी, क्योंकि मुझे याद पड़ता है
कि कुँओं में पानी खींचने के लिए इनका इस्तेमाल
प्राथमिकता के साथ होता था। पुरानी ट्यूब के विविध उपयोग थे पर सबसे लोकप्रिय उपयोग गुलेल बनाने का था। गाँव में ऐसे
बहुत से नवयुवक थे जिन्हें 'चिड़ीमार' की मानद उपाधि प्राप्त थी
और वे गुलेल के अलावा 'गुलफाम' का इस्तेमाल करते थे। 'गुलफाम' यानी कपड़े या रबर की बनी एक पतली पट्टी जिस पत्थर रख
कर उसे तेज गति से गोल-गोल घुमाया जाता था और पत्थर को लक्ष्य की ओर साधा जाता था। यह क्रिया गुलेल की तुलना में
बेहद कठिन होती थी पर इसका वार तेज और अचूक होता था।
एक अन्य उपकरण पहियों के
स्पोक और सीट के नीचे से
बरामद होने वाली स्प्रिंग के सहयोग से बनता था। स्पोक को कमान की तरह मोड़कर उसके सिरे पर एक फंदा लगा दिया जाता।
यह कमान तब ऑपरेट होती जब एक खास स्थान पर रखे दानों को
चुगने के लिए चिड़िया चोंच मारती। उसकी चोंच लगते ही
कमान की तरह ऐंठा हुआ स्पोक बिजली की गति से सीधा होता और चिड़िया की गर्दन फंदे पर फँस जाती। बॉल बियरिंग का
इस्तेमाल कंचे वाले बक्सों की शोभा बढाने के लिए होता था।
तब चुनाव प्रचार आज की तरह हाइटेक नहीं होते थे। पार्टी कार्यकर्ता आम
तौर पर साइकिल पर ही सवार होकर आते थे। हमारी
दिलचस्पी उनसे मिलने वाले बिल्लों में होती थी, वे किस
पार्टी के हैं इससे कोई
गरज नहीं होती। पार्टियां तब दो ही थीं। कांग्रेस का चुनाव चिह्न 'गाय-बछड़ा' था जो हमें ज्यादा आकर्षित करता था। जनसंघ का दीया होता था। कई बार दीये वाला बिल्ला खोंसकर
ही हम नारे लगाते थे,
"दीये में तेल नहीं, सरकार चलाना खेल नहीं।" बिल्ले आम तौर पर मोटे कागज के बने होते थे, जिसके एक कोने में पिन लगी होती। जिसे टिन वाला गोल बिल्ला जाए, वह इतराए हुए फिरता था।
साइकिल और साहित्य से
बाबा भैया का अटूट रिश्ता था। वे साहित्य प्रेमी थे और साइकिल की
उनकी पारिवारिक दुकान थी। दिन भर साइकिल की मरम्मत
का काम करते और फुर्सत होने पर साहित्य का वाचन। उनके पास ढेर सारी किताबें और उनके बारे में अद्यतन जानकारी मौजूद
होती थी। दुष्यंत कुमार की स्मृति में निकला सारिका का
विशेषांक मुझे उन्हीं के पास से मिला था, मीरो-गालिब के दीवान भी। वे हॉकी प्रेमी भी थे
और एक तरह से कस्बे में हॉकी की नर्सरी भी। साहित्य के अलावा
उनके पास खेल सम्बन्धी
पत्रिकाएँ भी इफरात
मात्रा में पाई जाती थीं। उनकी साइकिल दुकान में बिक्री और मरम्मत के अलावा साइकिलें किराए पर भी उपलब्ध होती थीं। बच्चों
वाली साइकिलों की माँग खास तौर पर गर्मियों की छुट्टी
में खूब होती थी,
जिसमें से एक साइकिल खास थी। इस साइकिल में पैडल के
शैफ्ट को बाबा भैया ने काटकर छोटा कर दिया था। शैफ्ट
छोटा होने के कारण ज्यादा चक्कर काटता था और बच्चों को लगता था कि साइकिल तेज चल रही है, लिहाजा इसकी मांग सबसे ज्यादा थी।
एक बार साइकिल की इसी
दुकान के सामने एक दिलचस्प वाकया हुआ। सामने वाली सड़क पर एक साइकिल जा रही थी जिसमें पीछे कोई 12-14 साल का बच्चा बैठा हुआ था। एक साइकिल विपरीत दिशा से आ रही थी, जिसमें इकलौता सवार था। जाने क्या हुआ कि पहली साइकिल में सवार बच्चा साइकिल से इस तरह से गिरा कि वह
सपाट सड़क पर बेलन की तरह चार-पांच बार लुढ़क गया। चोट
तो नहीं आई, अलबत्ता जब वह खड़ा हुआ तो पर्याप्त दिशा-भरम हो चुका था, और जब वह उठा तो सीधे विपरीत दिशा से आ रही साइकिल पर सवार हो गया। साइकिल सवार ने पीछे मुड़कर
देखा और बच्चे ने उसे। थोड़ी देर तक दोनों की समझ में
नहीं आया कि माजरा क्या है? जब तक भेद खुलता सड़क के दोनों ओर दर्शकों के ठहाके गूँजने लगे थे।
फिर एक दिन अचानक यह ख्याल आया कि घर का त्याग किए बगैर ज्ञान की
प्राप्ति नहीं हो सकती और जाना कहीं भी हो साइकिल
अनिवार्य है। तो अपन अपने दो मित्रों के साथ साइकिल पर
सवार होकर बस्तर की यात्रा पर निकल पड़े। अपनी यह यात्रा थोड़ी धर्म-निरपेक्ष टाइप की थी और थोड़ी समाजवादी भी, क्योंकि चर्च से लेकर मंदिर तक अपन ने सब जगह डेरा डाला और वीआईपी गेस्ट हाउस से
लेकर धर्मशाला-आउट हॉउस तक जहाँ भी जगह मिलती, अपन टिक जाते। पीछे कैरियर पर एक बैग बंधा होता। साथ में कपड़ों के अलावा एक दरी
भी थी। एक एल्युमिनिय का
कटोरा, घर से लाया हुआ चिवड़ा, थोड़ी चीनी और एक कॉफी का डिब्बा। अमूमन 80 से
100 किलोमीटर रोज चलते। चलते
हुए थकान हो जाती तो रुककर किसी पेड़ के नीचे दरी बिछा ली जाती। चिवड़े का सेवन किया जाता। मन हुआ तो दो-चार
लकड़ियां बटोर कर पत्थर पर कटोरे को चढ़ा दिया जाता और ब्लैक
कॉफ़ी तैयार कर ली जाती। इस ब्लैक कॉफी से प्राप्त
ऊर्जा अगले 20-30 किलो मीटर के लिए पर्याप्त होती। गाने और समाचार सुनने के लिए साथ में एक छोटा सा
ट्रांजिस्टर भी था।
कोंडागांव से चित्रकोट
जाते हुए इंद्रावती नदी को साइकिल समेत नाव पर पार किया। चित्रकोट पहुँचकर पहली बार जल-प्रपात का वह अद्भुत नजारा
देखा, जहाँ इंद्रावती नदी अपनी पूरी
चौड़ाई में नीचे की ओर गिरती ही। यहाँ तब एक ही रेस्ट हाऊस हुआ करता था और इसकी बुकिंग जगदलपुर से होती थी। हम
कोंडागाँव से यहाँ सीधे आ धमके थे सो चौकीदार को अल्प राशि
देकर आउट-हॉउस हथिया लिया। नदी के बीच में ही
टापूनुमा पत्थरों पर अपना भट्टा तैयार किया और ब्लैक कॉफी के लिए कटोरे को चढ़ा दिया गया। शाम डूबने को थी। सामने पानी
की तेज धार थी। नीचे पत्थरों से टकराती इंद्रावती के जल
का शोर था। जल-तरंग के
पार्श्व-संगीत के साथ
डूबते सूरज की लालिमा ने इंद्रावती के पानी में लाल रंग घोल दिया था और इस माहौल में हमारे हाथों में आई ब्लैक कॉफी को
ऊपर देवताओं ने सोमरस समझ लिया। कहते हैं कि एक
देवता को इससे इतनी ईर्ष्या हुई कि उन्होंने कुपित होकर
हमें कुछ श्राप जैसा दे दिया जिसका दुष्परिणाम हमें कोई चार दिनों बाद इसी स्थान पर भोगना पड़ा।
हुआ यूँ कि चित्रकोट से जगदलपुर होते हुए हम दंतेवाड़ा
पहुंचे। यहाँ डंकिनी और शंखिनी नदी हैं। इनके संगम पर 14 वीं शताब्दी में चालुक्य वंश के एक राजा द्वारा निर्मित मंदिर भी है। यहाँ एक परिचित के घर में
शरण मिली जो हमारी साइकिल यात्रा के साहसिक कारनामे
से बहुत प्रभावित हुए थे और ऐसा जान पड़ रहा था कि कहीं वे भी अगले रोज हमारी टुकड़ी में शामिल न हो जाएं। पर
प्रत्यक्षतः उन्होंने ऐसा कोई इरादा जाहिर नहीं किया और हम
लोग अगले रोज बारसूर
(बोधघाट) के लिए रवाना हो
गए।
उन दिनों बोधघाट परियोजना
को लेकर विवाद चल रहा था। पर्यावरणविद परियोजना के सख्त
खिलाफ थे। साल-वन सालों में तैयार होते होते हैं, उन्हें यूँ गाजर-मूली की तरह काट देना अखरने
वाला था। मेरा इरादा एक रिपोर्ट तैयार करने का था, जो समय खाने वाला था। बाकी साथी इसके लिए तैयार नहीं थे। हम रेस्ट- हाउस पहुँचे। जंगल में यह
कमरा हमें आसानी से मिल गया। दंतेवाड़ा वाले मित्र ने
कुछ नमकीन साथ रख दिया था। भूख लग आई थी, सो इसे ही खोल लिया। पर नमकीन को देखकर चौकीदार
की आँखों में चमक आ गई और वह बडी ततपरता के साथ हमारी सेवा
में लग गया। वह शाम के
इंतज़ार में था और उम्मीद
से था। जब उसे मालूम पड़ा कि यहाँ ऐसा कोई सिलसिला नहीं है तो वह अचानक कुपित हो उठा और सिगरेट पीने वाले एक मित्र को
बुरी तरह से डपट दिया। वह एक कहानी भी सुनाने लगा जो
एब्सट्रेक्ट किस्म की थी और जिसमें बार-बार 'काला पानी', 'खूँटी बीड़ी' और किसी मंत्री का जिक्र
आता था।
वह कहानी हमें थोड़ी देर
बाद समझ में आई, जिसका लब्बोलुबाब यह था कि उन दिनों शहर के रेस्ट हाउस में कोई मंत्री महोदय पधारे थे।
चौकीदार हर वक्त परमानन्द की अवस्था में होता था और हर
अधिकारी-संत्री-मंत्री को एक निगाह से देखता था।
मंत्री महोदय ने बिस्तर पर लेटे-लेटे एक सिगरेट सुलगा ली। चौकीदार ने मंत्रीजी को बुरी तरह डपट दिया। कहा, "बन्द कर! तेरे जैसा एक हरामखोर (सम्पादित) यहाँ आया था। सिगरेट के चक्कर में बिस्तर जल
गया था और पैसा मेरी तनख्वाह से कटा था।" बात सच
रही होगी पर एक चौकीदार द्वारा एक मंत्री जी को कही जा रही
थी, जिसमें एक वजनदार गाली का उचित सम्मिमिश्रण भी था। बतौर सजा उसे शहर के रेस्टहॉउस से बारसूर
के रेस्ट हॉउस भेज दिया
गया, जिसे वह खूँटी बीड़ी के एवज में काला पानी की सजा
बता रहा था।
बहरहाल, सोमरस के भरम में देवताओं द्वारा दिया गया श्राप
हमारे सिर पर सवार था। हमने चौकीदार को सिर्फ नमकीन दिया था, क्योंकि हमारे पास वही था। उसने समझा कि हमने उसे सिर्फ चखना देकर टरका दिया। वह
प्रतिशोध की आग में जल
रहा था, जिसका मौका उसे अगली ही सुबह मिल गया।
हमें बारसूर से वापस चित्रकोट लौटना था। हमने रास्ता चौकीदार से ही
पूछ लिया। हमें क्या पता था कि वह बदले की आग में जल
रहा है। उसने हमें एक नए रास्ते की ओर भेजते हुए कहा कि रास्ता नया बना है और पक्का है। तुम लोग जल्दी पहुँच जाओगे।
वह बेतकल्लुफ होकर आप से तुम पर आए गया था। उसने
कहा था कि रास्ता नया बना है। हकीकत ये थी कि रास्ता
नया बन रहा था। 7-8
किलोमीटर जाने के बाद हम पत्थरों वाले रास्ते में आ गए थे। साइकिल की
सवारी की सारी गुंजाइश खत्म हो गयी थी। कोई 32-34 किलोमीटर अब हमें पैदल ही चलकर तय करना था।
दोपहर का खाना नहीं था। कुछ दूर जाकर पानी भी चूक गया।
पत्थरों वाले रास्ते में
कहीं-कहीं पैदल चलने के
अलावा साइकिल को उठाना भी पड़ता था। किसी तरह देर शाम को चित्रकूट पहुँचे। चौकीदार ने आउटहॉउस तो खोल दिया पर खाने
को लेकर किसी भी किस्म के सहयोग से इनकार कर दिया। पास
की एक गुमटी, जहाँ नमकीन और बिस्कुट मिल जाते थे, बन्द पड़ी थी। हम थके थे
और भूखे थे, क्योंकि हम पर देवताओं का श्राप था। उस दिन जब हम कथित रूप से सोमरस का पान कर
रहे थे, हमेँ कुछ बूंदे देवताओं को अर्पित करनी थी। हमें
हमारे किए की सजा मिल चुकी थी।
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पुनश्च: यह