स्कूल
जाने के लिए घर के पिछवाड़े के खेत की मेड़ से जाना होता। बना में सबसे पहले बरगद का विशाल पेड़ पड़ता, जिसके नीचे गर्मी के दिन
बीतते। बरगद के चबूतरे पर शीष नवाकर बच्चों की टोली खेतों के मेड़ों से होती हुई
रामाधीन के बना पहुँचती। फिर स्कूल आ जाता। बप्पा पिछवाड़े के खेत में
भदैली ककड़ी बोते। उसकी रखवाली के लिए मचान
बनता। मचान पर चढ़कर सोने के लिए
होड़ लगती। भादों में रात में ककड़ियाँ पककर फूटतीं, तो उनकी खुशबू पूरे खेत में फैली रहती। सबेरे ककड़ी के बजाय खुशबूदार पके पेहटुल्ले की खोज होती, जो ज्यादा मीठे होते। जब तक ककड़ियाँ कच्ची
रहतीं, कच्ची खाई जातीं। पककर फूटने पर 4-5 किलो तक की ककडियां घर आतीं, तो घर के सभी लोग खाते।
उन दिनों पानी भी खूब बरसता था। बारिश में पके मूंग व उड़द उखाड़कर घर आते, तो उनकी फलियाँ घर में तोड़ी जातीं। कुडिया नाम का काले रंग
का धान सबसे पहले पकता, जिसे काका खेत से काटकर लाते, तो बारिश के कारण उसे घर के भीतर ही पीटकर धान इकट्ठा
किया जाता। सूखने पर अम्मा उसे मूसल से कूटकर उसका चावल निकालतीं। इस चावल की खिचड़ी बहुत
स्वादिष्ट बनती। यही खिचड़ी खाकर हम सब स्कूल जाते।
भादों पूर्णिमा से मेलों का मौसम शुरू हो जाता। दीवाली पर नए धान का घर
की ओखली में कुटा चूरा खूब चबाया जाता। इसके साथ चीनी के बने खिलौने भी चबाए जाते। कातिक में खेत तैयार हो
जाते, तो घर के सभी लोग मिलकर आलू बोते। जिस दिन खेत का काम रहता
उस दिन स्कूल जाने से छुट्टी। आलू पूरी तरह पके बिना ही खोदकर घर आने लगता। अम्मा नई आलू की तरकारी बनातीं। हम सब उन्हे तपता(अलाव)
में भूनकर खाते। इसी बीच गंजी(शकरकंद)भी
तैयार हो जाते। सफेद दूधिया शकरकंद कच्चे
भी खाए जाते और भूनकर भी। भूख लगने पर बच्चे स्कूल आते-जाते शकरकंद खेतों से निकालकर खाते। पकने व बढने पर शकरकंद खेतों में बाहर
दिखने लगते।
दिसम्बर-जनवरी में मटर में फलियाँ आने लगतीं। मटर के पेड़ का ऊपरी सिरा बेहद मुलायम व मीठा होता। भूख लगने पर बच्चे उसे भी तोडकर खाते। रास्ते में पड़ने वाले चने के खेतों से साग तोडकर
खाया जाता। मटर की कच्ची छीमियाँ तोडकर जेबों में भर ली जातीं और रास्ते में
उन्हे खाते हुए स्कूल आते-जाते। जिस दिन आलू व गंजी की खुदाई होती, उस दिन स्कूल की छुट्टी। बड़े लोग इनकी खुदाई करते
बच्चे उन्हे बीनकर इकट्ठा करते। खेती का जब भी काम होता उस दिन स्कूल की छुट्टी
करनी पड़ती। यह सिलसिला 1970-71 से शुरू होकर 1980-81 तक चलता रहा।
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शानदार प्रस्तुति। दिल को छू गयी।
ReplyDeleteपंडित राम नरेश त्रिपाठी की कविता -
ReplyDelete'अहा, ग्राम्य-जीवन भी क्या है, क्यों न इसे सबका मन चाहे,
थोड़े में निर्वाह यहाँ है, ऐसी सुविधा और कहाँ है?'
याद आ गयी. हम लोगों ने, जिन्होंने ग्राम्य-जीवन का अनुभव ही नहीं किया है, वो मिट्टी की इस महक से दूर हैं. हमको भी ग्रामीण-जीवन का अनुभव कराने के लिए धन्यवाद शुक्ल जी.
बहुत सुंदर प्रस्तुति गांव की यादें ताजा हो गईं आभार आदरणीय
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