कल गूगल पर मचान की एक तस्वीर देखी तो बचपन के कई भूले-बिसरे पन्ने खुलने लग गए। हमारे बचपन का एक एडवेंचर ये मचान भी हुआ करते थे। गांव में होते हुए भी गांव वालों के लिए अदृश्य हो जाने का एडवेंचर। ज़मीन पर होकर भी ज़मीन से थोड़ा ऊपर उठ जाने का रोमांच। रात में ये मचान खेतों की रखवाली करने वाले मर्दों के हवाले होते थे। दिन में इनपर टोले के बच्चों की बादशाहत चलती थी। इन मचानों ने बहुत सारे खेलों को जन्म देने के अलावा थोड़ा-बहुत रूमान भी पैदा किया था हमारे मन में। रूमान का मतलब जाने और समझे बगैर।तब मेरे गांव में बच्चों का सबसे प्रिय खेल हुआ करता था कनिया-दूल्हा। मचान पर जमा चार-छह लड़के-लड़कियों में लड़कियों को यह अधिकार होता थाकि अपना स्वयंबर रचाकर अपना दूल्हा वे स्वयं चुन ले। ब्याह में लड़के सिंदूरदान की जगह मिट्टीदान करते थे। मुंहदिखाई या उपहार में लड़कों को अपनी-अपनी दुल्हनों को बस कुछ अच्छा खिलाना पड़ता था। मसलन घर से चुराकर लाए गए ठेकुए, लड्डू, खुरमा, हलवा। यह सिलसिला सालों तक चला था। कल ब्याह का वह मचान मंडप याद आया तो यह भी याद आया कि तब कुल मिलाकर दर्जन भर पत्नियां तो आ ही गई थीं मेरे हिस्से में। अब वो कहां और किस हाल में हैं, यह पता नहीं। कहीं दादीत्व और नानीत्व के सुख भोग रही होंगी शायद। क्या पता उनमें से दो-चार यहां फेसबुक पर भी हों। हां, मचान पर चढ़ने लायक तो नहीं ही रह गई होंगी वो। बहरहाल मेरी वे मचानी पत्नियां अभी जहां और जैसी भी हों, उनकी बहुत याद आ रही है आज।
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