क्या वे भी जाड़े के दिन थे। चाहकर भी मैं अपने बचपन के दिनों को भूला नहीं पाता। खाने के मामले में जाड़े का मौसम वास्तव में मौसम का बादशाह था। गर्म या ऊनी कपड़े भले ही पहनने को नहीं थे, पर खाने और खेलने से ही शरीर में इतनी गर्मी रहती थी कि कपड़े की जरूरत ही महसूस नहीं होती थी। सुबह उठते ही शौच के बाद बरामदे में बोरसी के पास या धूप में बैठकर बासी भात और चने-सरसों की साग और साथ में आम के अचार का तो कहना ही क्या? एकदम लसारके खाइये, कोई हर्ज नहीं। इसके बाद दो घंटे तक गाँव की गलियों, खलिहान या दालान पर साथियों के संग खेलिए। पता ही नहीं चलता था कि पेट कब खाली हो गया? इसके बाद फिर से स्कूल जाने के पहले गरमा-गरम भोजन का इंतजार। भाप निकलता भात, मटर की हींग से तड़का लगी दाल, आलू-बैगन और मटर की तरकारी और कभी जल्दबाजी में सिर्फ भात और तरकारी खाकर ही झोला उठाकर दो किलोमीटर दूर संदेश स्कूल में पढ़ाई के लिए रवाना।
स्कूल से लौटकर फिर वही दिन वाला खाना, और गांव में खेलकूद, मारपीट और दौड़ा-दौड़ी। कबड्डी, बुढ़िया कबड्डी, चिक्का, बांड़ी चिक्का, लुकाछिपी या कभी रबर की गेंद का खेल। खेलते-खेलते ही पुनः भूख का एहसास होने लगता था। यूँ समझिये कि खाना और खेलना ही हमारा प्यारा शगल था। पढ़ाई ऊपर-झापड़ ही होती थी, और उतनी ही होती थी, जिससे स्कूल में माट्साब से पीटें नहीं, और परीक्षा में पास हो जायें। अंधेरा घिरते ही पेट भोजन के लिए कुलबुलाने लगता था। तब हमारे गाँव में सुबह, दिन और रात सिर्फ भात ही लोग खाते थे, खासकर जाड़े के दिनों में। रात में फिर वही भात, मटर की दाल और आलू, बैगन, मटर और सेम की तरकारी। कभी-कभार भात और तरकारी से भी काम चल जाता था। मुझे तो भात और तरकारी आज भी अच्छा लगता है। अगर घर में चने की साग है, तो शायद ही तरकारी की जरूरत पड़ती थी। चने की साग में हरी मिर्च, हरे लहसुन की पत्तियाँ और सरसों का तेल या अचार का मसाला मिलाया जाता था। इसके बाद कौन कहाँ तरकारी खोजता था? भात और साग लसारकर खाइये। कभी-कभी कोबी (गोभी) की तरकारी भी मिलती थी, पर ऐसा कभी-कभी ही होता था। हाँ, कोहड़ा, कद्दू और नेनुआ की तरकारी जरूर मिलती थी। इसके पौधे हर कोई अपने घर के छप्पर या आलान पर चढ़ा देता था। कच्चे कोहड़े की तरकारी ही मुझे अच्छी लगती है। पक्के कोहड़े की तरकारी मैं आज भी पसंद नहीं करता हूँ। कद्दू और नेनुआ की तरकारी कैसे भी करके बनाई जाये, मुझे पसंद है। इनके साथ मैं भात सानकर आराम से खाता था। अगर इसके साथ मट्ठा मिल जाये तो फिर बात ही क्या? कोहड़े के पत्ते की साग भी मैं बड़े चाव से खाता था। अब तो यह मिलता ही नहीं।
पर, जाड़े में भात, चने की साग, दाल, तरकारी, चोखा, अचार और दही या मट्ठे के अलावा चूड़ा और लाई भी अफरात में मिलता था। चूड़ा तो कातिक माह से ही शुरू हो जाता था, जब कतिका धान पकने पर आता था। पकने के पहले ही उसे खेतों से काट लिया जाता था, और घर की औरतें आंगन में ही पीटकर धान निकालती और फिर ओखल में मूसल से कूटकर चूड़ा बनाती थीं। हरे धान की सौंधी महक वाले चूड़े की बात ही कुछ और थी। कितना भी खाइये, पेट तो भर जाता था, पर मन नहीं भरता था। इसके अलावा लाई (चूड़ा, चावल, धान, बाजरा, ज्वार) की भी भरमार होती थी। कौन कितना खा रहा है, इसकी कोई गिनती नहीं थी। वैसे भी यह भोजन में गिना भी नहीं जाता था। इसे लोग ऊपरवार मानते थे। चूड़ा और लाई के अलावा सोंठ और मेथी के लड्डू भी बनते थे। इन सब कामों में मेरी आजी गाँव में चुनिंदा थी। लोग उसे अपने घर खुशामद करके बुलाते थे। जाड़े भर में हर कोई इतना जरूर खाता था कि उसके शरीर के ऊपर चर्बी दिखाई पड़ने लगे। यहाँ तक कि पशुओं का शरीर भी मोटा-ताजा होकर चमकने लगता था। पर, इन सबसे ऊपर था मटर और फिर चने का होरहा, जिसे बधार में किशोर वय के लड़के और नवजवान तैयार करते थे, और जो बच जाता था, वह घर की औरतों के लिए होता था। होरहे के साथ आजवाईन मिला नमक, हरी मिर्च, अदरक और कभी-कभी नींबू की नीमकी भी हाथ में लोग खाते थे। अब तो स्थिति ऐसी हो गई है कि गांववाले भी खुद इनके लिए तरस रहे हैं। चने और मटर की खेती गाँव से खत्म हो गई है। मौसम में कभी मिल जाये, तो इसे सौभाग्य ही लोग समझते हैं।
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