मिडिल स्कूल में गणित के
मास्टर श्री राम दुलार सिंह क्षेत्र के जाने माने अध्यापक थे. शिक्षा और चरित्र को वह एक सामाजिक मिशन के रूप
में लेते थे. सुबह दोपहर शाम
मास्टर साहब के दरवाजे सभी छात्रों के लिए समान रूप से खुले रहते. बिना भवन के स्कूल में
मास्टर
साहब पीपल के पेड़ के नीचे साठ और सत्तर के दशक में अपनी कक्षाएं लगाते. हाथ में अरहर के डंडे या बांस के पतले डंडे को बतौर हथियार रखते,
जिससे
मेरे जैसे बिगड़े नालायक छात्रों को भी कूट कूट कर संस्कार
जैसा तत्व डाला जा सके. उनके इस कूटने की आदत के चलते हमारे जैसे पढ़ाई में रूचि न रखने वाले छात्रों ने उनका नाम
बुक्कन बावू साहब रखा था.
बुक्कन बावू साहब के पिटाई के डर से बहुत से छात्र अपने पालतू जानवरों को चराने के बहाने पूरा दिन गाँव से कोसो दूर रहते, बावली, नदी के किनारे गिल्ली
डंडा खेलते, अँधेरा होने पर घर आते और
चुपके से खाना खाकर बिस्तर लेकर
कहीं दूर खलिहान वगैरह में जाकर सो जाते.
बुक्कन बावू साहब शाम को एक बार सबके घर जाते. भगोड़े छात्रों की शिकायत
उनके माता पिता से करते या कुछ
को खुद खोजकर सांध्य कालीन कक्षा लगवाते. गैर संस्कारिकों को शाम को कूट कूट कर भेजे में ज्ञान और संस्कार की
चासनी डालते. हमे उस वक्त बहुत
हैरानी होती कि जिसको तनख्वाह इतनी कम मिलती हो कि किसी तरह बड़ी मुश्किल से घर परिवार चल सके. लेकिन उस न्यूनतम
तनख्वाह वाले समाजवादी भारत के
दौर में जब गेहूं और चावल भी आयात होकर अमेरिका से आता था मोटे अनाज को खाकर जीने वाले भारत में महीने में एकाक बार किसी के घर
ज्वार -बाजरे या जौ की रोटी की जगह कोटे का खरीदा हुवा चावल बनता तो उस दिन किसी पाच सितारा होटल में खाने से भी कहीं उच्च कोटि का एहसास
होता. हम हैरान रहते कि यह बुढवा
पढाई के पीछे इतना क्यों पगलाए रहता है. जबकि इससे उसको कोई अतिरिक्त आय नहीं, कोई दुसरे ढंग का फायदा
नही, क्या सिर्फ नालायक लड़को को कूटने के लिए यह ऐसा करता है ?
आज जब देश की शिक्षा व्यवस्था के गिरते हालत और अध्यापकों के गिरते चरित्र और
ज्ञान के स्तर को देखता हूँ तो
मुझे बुक्कन बावू साहब जैसे शिक्षक याद आते है जिनके लिए शिक्षा एक मिशन था. जिन्हें इस बात की कोई फ़िक्र नही थी
कि उनकी आर्थिक स्थिति कैसी है
लेकिन शिक्षा की स्थिति बेहतर हो इसके लिए वह एक मिशन बनकर जीयें और लोगों को सुधारते रहें ...
बुक्कन मास्टर साहब को एक श्रद्धांजलि .....
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