हम लोग सिक्रेट एजेंट हैं, यह बात सिर्फ दो ही लोगों को पता थी, एक तो
मुझे, और दूसरा गुड्डू को।
सिक्रेट मेंटेन करना ही
सिक्रेट एजेंटों का सबसे बड़ा दायित्व है, और हम इस बात को खूब
जानते थे।
किसी को पता नहीं था कि
हमारा गुप्त दफ्तर कहां है। दफ्तर के खुलने और बंद होने का समय क्या है। दफ्तर तक पहुंचने का गोपनीय रास्ता कहां है।
सबसे बड़ा फायदा यह था कि
लोग हमें बच्चा समझते थे, लेकिन सिर्फ हमें ही पता
था कि हम कितने सयाने हैं।
हमें पता था कि देश के
दुश्मन बहुत खतरनाक किस्म के लोग होते हैं। हम उन्हें सीधे सबक नहीं सिखा सकते,
इसलिए
जासूसी आसान रास्ता है। उनके राज का पता लगाकर, यदि पुलिस को फोन घुमा दिया जाए तो अच्छा सबक सिखाया जा सकता है।
पुलिस का फोन नंबर हमें
मुंह जुबानी याद था, हम बस ताक में थे कि कोई
तो देश का दुश्मन मिले।
पहला शक हमें विमल टाकिज
के एक पानवाले पर हुआ। पान बनाते-बनाते वह अपने ठेले के नीचे घुस जाता, और फिर बड़ी देर बाद बाहर
आता। हमें शक था कि नीचे कोई गुप्त तहखाना है, जिसमें ट्रांसमीटर वैगरह लगे होंगे। हो सकता है कि भारी मात्रा में हथियार भी हो।
पानवाले के इस तरह गायब
होने का निश्चित समय था, दोपहर लगभग एक-डेढ़ बजे। हम रविवार को अक्सर उस पान ठेले के आसपास ही मंडराया करते, ताकि राज का पता लगाया जा
सके। रविवार को इसलिए, क्योंकि बांकी दिन हमें
स्कूल जाना पड़ता था, जासूसी तो पार्ट टाइम
किया करते थे।
पानवाले की जासूसी का काम
आसान नहीं था। हम पान ठेले तक खुद जा नहीं सकते थे, क्योंकि मोहल्ले के किसी मामा या भैया ने देख लिया, तो हमारी शिकायत सीधे नानी तक पहुंचेगी, और हो सकता है कि हम पर
बीड़ी-तम्बाकू
का झूठा आरोप मढ़ दिया जाए।
लेकिन जासूसों को कठिनाइयां तो मोल लेनी ही पड़ती हैं। आखिर पान ठेले तक जाकर पता
लगाने का हमने निश्चय कर ही लिया।
उस रोज गुड्डू ने ठेलेवाले के सामने हाथ पसारते हुए कहा- भैया, थोड़ा कतरी देना तो। और
हाथ में कतरी आते-आते उसने अपनी तेज आंखों से पूरे पान ठेले
का एक्सरे कर लिया।
उस रोज हमें पता चला कि पान ठेले के नीचे जो छोटी सी खोली है, वहां पानवाले का टिफिन रहता है। और दोपहर के वक्त वह वहीं पर घुसकर खाना खाता है। हमारी इतने दिनों
की मेहनत पर पानी ही फिर
गया। कितने ही रविवार बरबाद हो गए। खैर, जासूस कभी हार नहीं मानते...
एक रोज जब हम शिवचौक पर
नड्डा खरीद रहे थे, तो देखते क्या हैं कि एक काले रंग की कार मंदिर चौक पर मुड़ रही है।
उसे देखते ही हमारे भीतर के जासूस
सक्रिय हो गए...
काले रंग की कार....ऐसे
ही कितनी ही काले रंग की कारों का पीछा राजन-इकबाल ने किया, और केस को सक्सेसफुली साल्व किया।
हमें लगता था कि यदि कभी
कोई केस हमारे हाथ लगा तो हम राजन-इकबाल से बेहतर जासूसी कर सकते हैं। फिर कोई एस.सी.बेदी हम पर भी किताब लिखेगा।
जासूस बनने के लिए कोई
कोर-कसर हमने छोड़ न रखी थी। असली-नकली सभी किस्म के एस.सी.बेदियों की किताबें हमनें चांट रखी थी। मूंछ वाले एस.सी.बेदी, बिना मूंछ वाले एस.सी.बेदी, शाल ओढ़े एस.सी.बेदी, बिना शाल ओढ़े एस.सी.बेदी...सभी की। जब हम कोई केस साल्व कर लेंगे तो एस.सी.बेदी
से हमें संपर्क करना पड़ेगा, हम जानते थे। तब एस.सी.बेदी से एक किताब लिखवाई जाएगी, जिसमें राजन-इकबाल की जगह नाम होगी गुड्डू और केवल।
हमें जासूसी के सारे खतरे पता थे। हो सकता है कि किसी रोज दुश्मन हमारा अपहरण
कर ले, और हमारे हाथ रस्सियों से बांध कर किसी कमरे में फेंक दे, इसलिए जूते के तल्ले में खांचा बनाकर
ब्लेड का एक टुकड़ा छुपाकर रखते थे, ताकि यदि ऐसा हो तो रस्सियां काटी जा सके।
बहादुर के कामिक्स को
पढ़कर हमने जान लिया था कि यदि कोई सामने
रिवाल्वर टिका कर दोनों हाथ ऊपर करने बोले, तो किस तरह अचानक रिवाल्वर छीनते हुए उस पर हमला करना है। और यदि पीठ
पर रिवाल्वर टिका दे, तो किस तरह अचानक पलटकर एक हाथ उसके रिवाल्वर पर और दूसरा हाथ उसके जबड़े पर दे मारना है।
वेताल के अचूक निशाने से
हम बहुत प्रभावित थे।
हालांकि उसके पास रिवाल्वर होती थी, हमारे पास पत्थर थे। हमने बांड़ा के पिछवाड़े वाले गंगा इमली के पेड़ पर पत्थर बरसा कर
खूब प्रैक्टिस कर रखी थी। कई
बार जूते लटका कर भी निशाना साधा करते थे।
जासूसों को कराते तो आनी
ही चाहिए...राजेंद्र भैया मिशन स्कूल में शोतोकान कराते अकादमी चलाया करते थे, जहां बहुत से लोग कराते
सीखते थे...हम दूर खड़े होकर सारे दांव पेंच
सीखते थे, और फिर बांड़ा के बगीचे
में उसकी प्रैक्टिस करते। हमने अपनी
हथेली से खप्पर फोड़ने की प्रैक्टिस कर रखी थी। एक बार ईंटे भी आजमाए, लेकिन हाथ इस कदर जख्मी
हुआ कि कुछ रोज स्कूल से ही छुट्टी लेनी पड़ी। हमने
तय किया कि जब बड़े हो जाएंगे तब ईंटे भी फोड़ेंगे,
फिलहाल
खप्परों से ही काम चलाया जाए, जो हमेशा बड़ी मात्रा में
उपलब्ध रहते हैं।
पूरा बांड़ा छानियों वाला
था। हर साल खप्पर बदलने पड़ते थे। इसलिए बड़ी नानी बड़ी मात्रा में नये खप्पर
मंगवा कर रखती थी।
बांड़ा खूब बड़ा था, मामा जी का परिवार छोटा। इसलिए ज्यादातर कमरों को किराए में दिया जाता था। जो कमरे खाली रह जाते, वही हमारा सिक्रेट दफ्तर
होता।
और सिक्रेट एजेंटों को यह पता था कि अपने दफ्तर में कभी भी दरवाजे से प्रवेश नहीं करना है। खिड़कियों का ही इस्तेमाल इसके लिए करना
चाहिए।
एक दफ्तर हमारा छोटी नानी
वाले तीमंजिले घर में भी होता। वहां की सबसे नीचे मंजिल का एक कमरा खाली रहता। हम सबकी आंखें बचाकर ऊपर से उस
कमरे में उतरते। उसकी आलमारी में
जासूसी के सामानों को चैक करते, जिसमें छोटी सी रस्सी, छोटा सा सिंगल बैटरी वाला
टार्च आदि होता..पता नहीं कब किस चीज की
जरूरत
पड़ जाए...
तो मंदिर की ओर काली कार
जैसे ही मुड़ी, हमें पक्का यकीन हो गया कि कुछ तो गड़बड़ है...यह पीछा करने का वक्त था।
हमारे पास कार नहीं थी तो क्या
हुआ, हमें पता था कि यह कार किस रास्ते जाएगी और हम गलियों में शार्टकट लेते हुए उस तक कैसे पहुंच सकते हैं...सो
हमने गलियों में दौड़ लगा
दी...
छोटी मस्जिद और गायत्री मंदिर को पार करते हुए जब हम तरुण फोटो स्टूडियो पहुंचे तो देखते क्या हैं कि वही कार उसी पान ठेले के करीब खड़ी है......
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बहुत ही सुन्दर। क्या वो बचपन रहा होगा।
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