यों ही
एक पोस्ट पर कॉमेन्ट डालते कुछ याद आया। और मैं हस्बे आदत बह सा गया माज़ी की तरफ़, अतीत की ओर!
मुद्दा था ओशो की एक लम्बी सी पोस्ट जिसका क़द्दावर आकार देख
एकबारगी मेरे भी होश फ़ाख़्ता हो लिए। तब
याद आये वे दिन जब हम टेस्ट मैच वाली पत्रकारिता करते थे। डरिये नहीं, मैं कोई क्रिकेटर या खेल
पत्रकार वग़ैरह नहीं था कभी। दरअसल मैगज़ीन में लिखने
को टेस्ट मैच, अख़बार लेखन को 50-ओवर और फ़ेसबुक जर्नलिज़्म को 20-20 मैच मानता हूँ मैं। किसी अनुभवी पत्रकार से पूछिए, हाँ में सर हिला देगा वह।
ख़ासकर 'लास्ट सन्डे' पत्रिका में मेरे लेख बहुत लम्बे हुआ करते- 5 से लेकर 8 पृष्ठ तक आम तौर पर। एक बार गोरखालैंड पर लिखा आलेख तो 12 पृष्ठों तक जा पहुंचा !
लिखने वाला मजनून था या कौन रब्ब जाणे, पर पढ़ने वाले धन्य थे बेचारे!
और आज देखिए, लम्बी पोस्टें देख ख़ुद हमें पसीना आने लगता है। एक बार को ठिठक सी जाती है नज़र। आदत भी
क्या चीज़ होती है ! जुम्आ जुम्आ
साढ़े 3 बरस हुए मुझे 20-20 खेलते और आदत ऐसी बिगड़ गई ! अच्छी तरह याद है, फ़रवरी 2015 में दिल्ली चुनावों पर
खेला था अपना पहला ट्वेंटी-ट्वेन्टी। और अब
उसी की आदत ने लपेट छोड़ा हमें। कल फिर कहीं टेस्ट खेलना पड़े तो विपदा ही पड़ जाये!!
यों ही माज़ी में टहलते टहलते ज़हन कुछ और, ज़रा और पीछे चला गया। 30-40 साल पीछे 70-80 के दशक में। वह जब विद्यार्थी हुआ करते थे अपन। तब आज की तरह न केबल था, न इंटरनेट। टीवी भी हर घर में नहीं था। होता
भी क्योंकर ? न लोगों के पास ज़्यादा
पैसे थे और न टीवी पर अधिक प्रोग्राम !
एक दूसरे से मिलना, संवाद करना, दुख-सुख बांटना, बस यों कहिए कि human interaction ही सबसे बड़ा ज़रिया था दिलबहलाव का।
हाँ, एक और बड़ा साधन था जी के
बहलाने को...किताबें। ज्ञान-ध्यान की नहीं
बल्कि
नॉवेल और पत्रिकाएं। हर तरह की पत्रिका बिकती थी...साहित्यिक कादम्बिनी, धर्मयुग... हास्य प्रधान
चम्पक, लोट-पोट... ज्ञानवर्धक चन्दामामा...सनसनीपूर्ण सत्यकथा,
मनोहर
कहानियाँ...राजनैतिक भू भारती, माया...नारी प्रधान छाया, मुक्ता, मनोरमा...फ़िल्मी सुषमा, मायापुरी और भी जाने कितनी। और अभी तो
मैंने उर्दू-अंग्रेज़ी पत्रिकाओं के नाम नहीं गिनवाए!
नॉवेल का बाज़ार भी बहुत गर्म था अलबत्ता लिटरेरी नॉवेल- साहित्यिक
उपन्यास मेरे दौर तक आते आते उतने
लोकप्रिय नहीं रह गए थे। 60 के दशक में कहीं खोना शुरू हो गए थे अपना आधार और बुद्धिजीवियों तक सिमटने लगे थे।
गुलशन नन्दा ' नाम की रोमांटिक आंधी ले उड़ी थी पाठकों, विशेषकर महिला वर्ग के
पठन्तों
को। कैसी दीवानगी थी इस लेखक की, क्या बताऊँ ! फिर किसी
पोस्ट में अलग से इन पर लिखूंगा
वरना यह पोस्ट गुलशन नन्दामयी हो जाएगी। इसके अलावा साधना प्रतापी, राजहंस और रानू जैसे लेखक
भी ख़ूब पढ़े जाते। किराए पर नॉवेल लिए जाते। 1 रुपया किराया था सुपर स्टार गुलशन नन्दा के उपन्यास का और बाकियों के 50 से 75 पैसे प्रतिदिन किराये पर मिल जाते। महिलाएं आपस में नॉवेल एक्सचेंज करतीं और अगले दिन अपना अपना किराया बचा कर वापस भी
कर देतीं। ज्ञातव्य हो कि इन
महिलाओं की औसत शिक्षा 8वीं से 12वीं तक थी बस और ये घर के सारे काम
रसोई-बर्तन-सफ़ाई ख़ुद ही करती थीं। आज के मुझ जैसे पढ़े लिखों को शर्म आनी चाहिए, एक तवील पोस्ट देख कर
कंपकंपी छूटने लगती है। औसतन 300 से अधिक पन्नों के नॉवेल हुआ करते जिन्हें एक-दो रोज़ ही में चट कर जातीं वे, फ़िल्मी व अन्य पत्रिकाओं
के अलावा। जी, वे सन्नारियां जिन्हें आप कम पढ़ा लिखा बता अपनी शिक्षा पर फूले नहीं समाते।
पुरुष रोमानी उपन्यास ज़रा कम पढ़ते पर
उनके लिए भी पूरा सामान मौजूद था। ओमप्रकाश शर्मा,
वेदप्रकाश
शर्मा, वेदप्रकाश काम्बोज, विमल चटर्जी, सुरेन्द्र मोहन पाठक एवं कर्नल रंजीत के जासूसी उपन्यास उनकी ख़ुराक मयस्सर करवाते। ख़ूब
बिकते और ख़ूब किराए पर लिए जाते इन
महानुभावों के नॉवेल। हालांकि पुरुषों की नॉवेल निपटाने की रफ़्तार ज़रा कम थी औरतों-लड़कियों से। दोनों के बीच का
पुल या कॉमन फेवरेट कहें तो वे
कोई और नहीं गुलशन नन्दा ही थे। वैसे अधिकांश मर्दों की पसंदीदा पत्रिकाएं माया,
सत्यकथा
और मनोहर कहानियाँ थीं।
आज हम विज़ुअल वर्ल्ड के ग़ुलाम हो गए। केबल के ड्रामाई सीरियल हमें
अपने समाज और विशेषतया नारी का
नक़ली, नाटकीय रूप दिखाते हैं, विकिपीडिया से रेडीमेड जानकारी उठाते
हैं हम जो अक्सर प्रामाणिक नहीं होती। और लेखकों की सुंदर रोमानी दुनिया को अलविदा कह फ़िल्म स्टार्स व राजनेताओं के नौटंकी संसार को अपना चुके हैं
हम!
अरे हां, बात पठन पाठन से शुरू हुई
थी ! तो जनाब, वह अब सीमित है कोर्स की शुष्क,
बेमज़ा
किताबों तक। और वह भी गहन अवगाहन हेतु नहीं, बस रट-रटा कर परीक्षा में ताबड़तोड़ नम्बर लाने की ग़रज़ से। लेखकों और उनके दीवानों का दौर गुज़रे कल के साथ गुज़र गया, शायद फिर कभी वापस न आने के लिए!!
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