Saturday 18 September 2021

"नौटंकी" - अशोक पाण्डे

 

रामनगर में हमारे घर के सामने एक बड़ा सा ऊबड़-खाबड़ मैदान हुआ करता था. इसके एक हिस्से में काशीपुर-मुरादाबाद जाने वाली प्राइवेट बसों का अड्डा था. बसों के क्लीनर बसों में झाडू लगाते तो हम छोकरे उस कूड़े को बीना करते थे. हमने माचिस के डिब्बे इकठ्ठा करने की हॉबी पाली हुई थी.

यह मैदान में हर साल जुलाई-अगस्त के महीने में एक रंगबिरंगी नुमाइश का आयोजनस्थल बन जाया करता. नुमाइश का एक जबरदस्त आकर्षण होता था सात दिन- सात रात साइकिल चलाने वाला एक आदमी जो टांडा या स्वार जैसी किसी जगह से आया करता. पतंगबाजी के मुकाबले हुआ करते.

दुकानें लगतीं जिनमें खिलौनों के अलावा चने-परवल, गट्टे-मिश्री, जलेबी-टिकिया और लकड़ी-लोहे के घरेलू सामान बिका करते. ऐसा ही एक दूसरा मैदान थोड़ी दूर पैंठ पड़ाव में था जहाँ बिजली वाले झूले और मौत के कुंएं जैसी आधुनिक सम्मोहक चीजें देखने को मिलती थीं. इन दोनों के बीच पड़ने वाले खेल मैदान पर राष्ट्रीय स्तर की फ़ुटबाल प्रतियोगिता भी होती. संक्षेप में जुलाई-अगस्त के रामनगर की शोभा किसी रियो दे जेनेरियो या लास वेगास से कमतर न होती.

इन सब से ऊपर नौटंकी का नंबर था जो एक लोकप्रिय कला के तौर उन दिनों अपनी अंतिम सांसें गिन रही थी अलबत्ता यह बात मुझे उस वक्त मालूम नहीं थी. बात सन 1977-78 की होगी. 10-11 साल की उम्र थी. लाउडस्पीकर से सुसज्जित, नौटंकी का विज्ञापन करता हाथ-ठेला घर के आगे से गुजरता तो घर के बड़ों की निगाहें हमें बता दिया करतीं कि यह कोई ऐसी चीज है जो गंदी है और हम बच्चों के मतलब की नहीं है. अमूमन अपने को बहुत सयाना समझने वाले घर के बड़े नहीं जानते कि बच्चे उससे कहीं ज्यादा सयाने होते हैं जितना उन्हें समझा जाता है. वैसा ही मेरे घर का भी हाल था.

अमर सिंह राठौड़, पृथ्वीराज चौहान और सुल्ताना डाकू जैसी क्लासिक नौटंकियों के परे जिस नौटंकी ने पूरे दो बरस मेरे दिल पर राज किया उसका नाम था मोहब्बत की कीमत’. रात के किसी समय नौटंकी शुरू होती. अपने सहज ज्ञान से मुझे मालूम पड़ चुका था कि उसे देखने जाने वाले लोग चरित्रहीन समझे जाते हैं. नगर के जो शरीफ लोग उसे नहीं देख पाते थे उनकी सुविधा के लिए कम्पनी ने यह इंतजाम कर रखा था कि पूरी रात भर लाउडस्पीकर पर नौटंकी बजा करती.

इस रात भर चलने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम से घर पर किसको क्या फर्क पड़ता है मेरी सोच के दायरे से बाहर की चीज थी. घर के ऐन सामने स्थापित नौटंकी के रंगबिरंगे तम्बू से निकलने वाली संवादों और गीतों की आवाजें एक नए कल्पनालोक की रचना करती थीं जिसके भीतर मेरी तमाम फैन्टेसियों ने अपने आशियाने बना लिए थे. तेज रफ़्तार और कैची धुनों पर आधारित इन नौटंकियों के ज्यादातर गाने हम दोस्तों को रट गए थे.मोहब्बत की कीमतका एक ख़ास गाना सब का फेवरेट बना.

एक दिन घर पर मेरी पसंदीदा दाल बनी हुई थी. सब लोग रसोई के सामने बरामदे में पंगत में बैठकर खा रहे थे. अचानक यूं हुआ कि भोजन से मिल रहे आनंदातिरेक ने मेरे भीतर के गायक को जगा दिया. मुंह में खाना धरे-धरे मैंने अपना प्रिय गीत गुनगुनाना शुरू कर दिया. तू है नागिन मैं हूँ संपेरा, संपेरा बजाये बीन” – मुंह से पहली पंक्ति प्रस्फुटित हुई ही थी कि मैंने अपनी आँखों के सामने बेशुमार तारों की झिलमिल देखी. पिताजी ने मेरी मुंडी पर इतनी जोर का झापड़ मारा था कि मेरा पिद्दी चेहरा नीचे धरी थाली में जा लगा.

भयानक तरीके से गुस्साए पिताजी बड़े भाई-बहनों को शरीफ लोगों वाले उपदेश देना शुरू कर चुके थे. झापड़ बहुत शक्तिशाली था. अभी मेरा चेहरा थाली पर ही था. दाल-भात में उसके सन चुकने के बावजूद मेरी आत्मा गाना पूरा कर रही थी – “लौंडा पटवारी का बड़ा नमकीन”.

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1 comment:

  1. गाँव की रामलीलाएं और नाटकों की याद दिला दी आपने। गांव से जब पहली बार दिल्ली आना हुआ तो बीच में रामनगर से बस बदलनी थी लेकिन रामनगर देखकर मुझे लगा यही दिल्ली है। गांव के बाद यही हमारा सबसे बड़ा शहर है।

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