Thursday 23 September 2021

"दास्तान ए शौक - पढ़ना"- सिंह उत्तम



 


पहली किस्त
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पढ़ना, पढ़ना और बहुत सारा पढ़ना, यही शौक पाला बचपन से जो अब तक ज़िन्दा है. मुझे याद नहीं कि छपे हुए अक्षरों से मुझे कब और कैसे मुहब्बत हो गयी लेकिन जैसे शराबी कहते हैं न कि ‘छूटती नहीं है काफ़िर मुंह की लगी हुई’, ठीक वैसे ही मुझसे ‘छूटती नहीं है काफ़िर दिल से लगी हुई. पहली याद जो आती है मुझे वो कुछ ऐसी है कि मेरी करीब पांच साल की उम्र थी जब पापा का ट्रांसफ़र लखनऊ से ग़ाज़ीपुर हो गया. एक रोज़ पापा कहीं बाहर गये हुए थे और घर में नमक ख़त्म हो गया. मां ने मुझसे कहा कि कम्पाउन्ड के बाहर ही दुकान है, वहां से दस पैसे का नमक ले आओ. मेरे जवान मित्रों, दस पैसे पर हंसियेगा नहीं क्योंकि यह बात है 1964 की और उस समय दस पैसे में ढेर सारी चीज़ें मिल जाती थीं. तो जनाब, मैं कागज़ के लिफ़ाफ़े में नमक ले कर आ रहा था और लिफ़ाफ़े पर छपे अक्षरों को जोड़ जोड़ कर पढ़ने में इतना तल्लीन हो गया कि लिफ़ाफ़ा फट गया और गिरता हुआ नमक संभालना मेरे नन्हें हाथों के लिये मुश्किल हो गया. संयोगवश उसी समय मेरा हमउम्र एक देहाती लड़का वहां से निकल रहा था जो दौड़ कर आया और अपने अंगोछे में उसने नमक सहित लिफ़ाफ़ा लपेट लिया और मुझे घर तक पहुंचाने आया. मुझे बाद में मालूम हुआ कि उसका नाम मनकू था और वह एक अंग्रेज़ लेडी डॉक्टर के ख़ानसामा रफ़ीक का बेटा था. बाद में हम दोनों गहरे दोस्त हो गये और तमाम शरारतें एक साथ करने लगे. शायद मेरे पढ़ने की शुरुआत इसी घटना से हुई थी क्योंकि घर आ कर मैंने उस फटे लिफ़ाफ़े को पढ़ा था. उस पर कुछ कार्टून भी बने थे. इसके बाद मैं जहां-तहां जो कुछ पढ़ने के लिये मिल जाये, पढ़ने लगा और बहुत तेज़ी से हिन्दी पढ़ना सीख गया. मेरी मां ने मेरे लिये घर में उस समय की प्रसिद्ध बाल पत्रिकायें पराग, नन्दन और चन्दामामा लगवा दीं. मेरा हाल यह था कि मैं एक ही दिन में पूरी पत्रिका चाट जाता था और फिर यहां वहां कुछ पढ़ने के लिये खोजता रहता था. जब मैं दूसरी कक्षा में था तो मेरी बड़ी बहन सातवें दर्जे में थी. मैं उनकी सारी किताबें निकाल कर पढ़ डालता था (गणित के सिवा जिससे मुझे आज भी उतनी ही नफ़रत है जितनी करेले से). इतिहास और हिन्दी की किताबें मुझे बड़ी रोचक लगती थीं. इन्हें पढ़ने के बाद मैं भूगोल और नागरिक शास्त्र की किताबें भी पढ़ डालता था. फिर जा कर अंग्रेजी की किताब का नम्बर आता था. शाम को जिस समय स्कूल से आकर सारे बच्चे खेलने निकल जाते थे, मैं कोई किताब ले कर जुट जाता था. मेरी मां मुझसे हमेशा कहती थीं कि तुम हर समय पढ़ा करते हो, शायद कभी भी कोई तुम्हारा दोस्त नहीं होगा (कालान्तर में यह बात ग़लत सिद्ध हो गयी क्योंकि अब मेरे अगणित मित्र हैं). 
 
पढ़ना, पढ़ना और बहुत सारा पढ़ना
दूसरी किस्त
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1968 में पापा का ट्रांसफर आज़मगढ़ हो गया. यहां हमारे कम्पाउन्ड में मेरे हमउम्र बहुत से लड़के लड़कियां थे और उनमें से कुछ पढ़ने के भी शौकीन थे. मेरी जल्दी ही उनसे दोस्ती हो गयी और हम लोग अपने अपने घर में आने वाली पत्रिकाओं का आदान प्रदान कर के पढ़ने लगे. यहां आते आते इन पत्रिकाओं में इन्द्रजाल कॉमिक्स की वेताल (फ़ैन्टम) और मैन्ड्रेक की चित्रकथायें भी थीं. अगले साल मैं छठे दर्जे में वेस्ली इन्टर कॉलेज में भर्ती हो गया जहां पर सौभाग्यवश लाइब्रेरी भी थी. मैंने भी लाइब्रेरी का कार्ड बनवा लिया और जब वहां किताब लेने गया तो लाइब्रेरियन जिनका नाम श्री के.के. वर्मा था, बोले कि तुम्हारे मतलब की किताबें अभी नहीं हैं यहां. उन्हें शायद इस बात का अहसास नहीं था कि मुझे तो छपे हुए अक्षरों से ही मुहब्बत थी. मित्रों, क्या आप यकीन करेंगे कि छठे दर्जे में पढ़ते समय ही मैंने श्री विष्णु प्रभाकर की ‘आवारा मसीहा’ जो श्री शरतचन्द्र की जीवनी है, पढ़ डाली जबकि मैंने इससे पहले शरतचन्द्र का नाम भी नहीं सुना था. इस लाइब्रेरी में श्री रांगेय राघव द्वारा हिन्दी में अनूदित शेक्सपीयर के कई नाटक थे जो मैंने एक सिरे से पढ़ डाले. साथ में जो भी किताब मिल जाये, मैं पढ़ डालता था चाहे वह कृषि सम्बन्धी हो चाहे विज्ञान सम्बन्धी. एक किताब मुझे अच्छी तरह याद है जब मैं गाज़ीपुर में था तो स्कूल की लाइब्रेरियन ने मुझे दी थी जिसमें घर में साबुन और मोमबत्ती बनाने का तरीका दिया हुआ था लेकिन मैंने उसे भी पूरा पढ़ डाला. श्री वर्मा को लगा कि मैं शायद यूं ही किताबें इश्यु करवा कर ले जाता हूं इसलिये उन्होंने एक दिन मेरी परीक्षा लेने की ठान ली. उन्होंने मुझे बैठा कर मेरा लाइब्रेरी कार्ड निकाला और उस समय तक मैं जितनी किताबें वहां से ले चुका था, उन सबके बारे में मुझसे पूछा कि किसमें क्या लिखा है ? मेरा तो यह पसन्दीदा विषय था तो मैं खुशी से उन्हें उत्तर देता गया. उस दिन के बाद वर्मा जी ने मुझे ख़ुद किताबें छांट कर देना शुरु कर दिया. शायद मेरे अन्दर छुपे हुए जिज्ञासु और समर्पित पाठक को सबसे पहले उन्होंने ही पहचाना था. जब मैं आठवीं क्लास में था तब लाइब्रेरियन वर्मा जी मुझसे बाकायदा किताबों के बारे में ऐसे बात किया करते थे जैसे अपने किसी हमउम्र से बात कर रहे हों.
लेकिन समय के साथ साथ मेरी रुचि कथा साहित्य में अधिक बढ़ती गयी और इतनी बढ़ी कि मैंने दूसरी किताबें यथा निबन्ध और कविता आदि पढ़नी बन्द ही कर दीं. इस शौक का असर मेरी पढ़ाई पर बुरा पड़ रहा था. जब भी मैं पढ़ने बैठता, मेरे ध्यान में कहानी की किताबें ही आने लगती थीं. मेरी मां, जो स्वयं भी एक अध्यापिका थीं और बहुत अधिक अनुशासनप्रिय थीं, कहानियों के प्रति मेरी बढ़ती रुचि देख कर चिन्तित रहने लगीं यद्यपि मेरे बचपन में उन्होंने मेरे लिये कई पत्रिकायें लगवा रखी थीं. अब मुझे हर समय कहानियां पढ़ने के लिये डांट पड़ने लगी और अगर परीक्षा में कम अंक मिले तो पिटाई भी होने लगी. लेकिन मेरा जुनून बढ़ता गया. हमारे घर में रात दस बजे सबको सो जाना होता था. जाड़े के मौसम में मैंने रात में कहानियां पढ़ने के लिये एक तरकीब निकाली. अपनी पॉकेटमनी से मैंने टॉर्च का एक सेल और होल्डर सहित उसका बल्ब ख़रीदा. मैं होल्डर के तारों को सेल के दोनों सिरों पर लगा कर बल्ब जला लिया करता था. अपने इस बहुमूल्य ‘यन्त्र’ को मैं रज़ाई में छुपा कर रखता था और रात में रज़ाई मुंह के ऊपर तक ओढ़ कर इसकी रोशनी में किताबें पढ़ता था लेकिन जल्दी ही अपनी नासमझी से पकड़ा गया और मेरा यह यन्त्र मुझसे छीन लिया गया. असल में हुआ यह था कि मैं रज़ाई में अपना यह यन्त्र लिये हुए कोई कहानी पढ़ रहा था और उस कहानी के किसी प्रसंग पर मुझे बेसाख़्ता हंसी आ गयी और बस मेरा राज़ खुल गया. मां ने कहा कि अगर तुमको कहानियां पढ़ने का इतना शौक है तो अपने खेलने के समय में कुछ कमी करो और उतने समय में कहानियां पढ़ लो लेकिन घर में पढ़ाई और सोने के समय में कोई कटौती नहीं की जायेगी. नतीजतन, जब कम्पाउन्ड के सारे लड़के लड़कियां बाहर खेल रहे होते थे तो मैं एक किताब में मुंह घुसाये उसे पढ़ता रहता था. 
 
पढ़ना, पढ़ना और बहुत सारा पढ़ना
(तीसरी किस्त)
एक दिन मेरे पास पढ़ने के लिये कुछ भी नहीं था और मैं बहुत बोर हो रहा था. मैं अपने एक दोस्त के घर कोई किताब मांगने के लिये गया. वहां उसके बड़े भाई ने मुझे इब्ने सफ़ी, बी.ए. का लिखा और ‘जासूसी दुनिया’ से छपा एक उपन्यास थमा दिया. जासूसी उपन्यास और मेरे घर में ??? कहर हो जाता अगर मेरी मां को पता चल जाता. (पापा बड़े लिबरल थे हमारे, थोड़ा डांट फटकार कर चुप हो जाते और बाद में मिठाई-विठाई खिला कर या कुछ पैसे दे कर हमें डांटने का मुआवज़ा चुका देते) ख़ैर तो उस उपन्यास को लेकर उसे अपने कपड़ों में छुपा कर मैं घर आ गया. जहां तक मुझे याद आता है इस उपन्यास का नाम ‘ख़ून की बौछार’ था. इस जासूसी उपन्यास के नायक कर्नल विनोद और उनके सहयोगी कैप्टन हमीद थे. यह उपन्यास मुझे एक नयी दुनिया में ले गया. किसी का क़त्ल होना, लाश का छुपाया जाना, गोलियों का चलना, जासूस का ख़तरों से खेलना और कातिल का पकड़ा जाना, यह सब मेरे लिये एक अबूझ दुनिया थी. अब पराग, चन्दामामा इत्यादि मेरे लिये दूसरे स्थान पर आ चुकी थीं. हां, इन्द्रजाल कॉमिक्स के वेताल (फ़ैन्टम) और मैन्ड्रेक की कहानियां मैं बदस्तूर उसी शौक से पढ़ता रहा. जिस दोस्त के घर से मुझे यह उपन्यास मिला था, उनके यहां इब्ने सफ़ी के उपन्यासों का ज़बरदस्त कलेक्शन था जो अब मैं एक एक कर के पढ़ता जा रहा था. लगातार जासूसी उपन्यास पढ़ पढ़ कर मेरा दिमाग़ भी शक्की होने लगा. हर घटना को मैं अपनी कम उम्र में ही जासूसों की तरह बारीकी से परखने की कोशिश करने लगा. हर घटना का विश्लेषण मैं अपनी कम उम्र में भी कर्नल विनोद की तरह करता था और अक्सर मेरा निकाला नतीजा सही भी होता था. यह दूसरी बात थी कि यह राज़ मेरे पास ही रहता था. अभी तक घर में किसी को पता नहीं था कि मैं जासूसी उपन्यास भी पढ़ने लगा हूं. लेकिन हाय रे भाग्य, एक दिन कोर्स की पुस्तक में छुपा कर उपन्यास पढ़ रहा था और क़ातिल एकदम पकड़ा ही जाने वाला था कि उससे पहले मैं पकड़ा गया. उफ़, एक तो कोर्स की किताब में उपन्यास और वह भी जासूसी. नतीजा वही, जम कर पिटाई, किताब का फाड़ा जाना और लानत मलामत. कुछ दिन तो मैं किताबों से दूर रहा लेकिन क्या करता जब कर्नल विनोद और कैप्टेन हमीद मुझे लगातार आवाज़ देते रहे. इब्ने सफ़ी साहब के स्थायी पात्र, कर्नल विनोद, कैप्टेन हमीद, कासिम, राजेश, जोली, मदन, फ़ाइव टू, डॉक्टर डारकेन, संग ही मेरे दिमाग़ में उथल पुथल मचाये रहते थे. दोस्तों, ये सिलसिला फिर चालू हो गया. जिस रफ़्तार से मैं उपन्यास पढ़ता था बेचारे इब्ने सफ़ी साहब उस रफ़्तार से तो लिख नहीं सकते थे नतीजतन मैं दूसरे लेखकों की ओर भी मुड़ा और वेदप्रकाश काम्बोज, ओमप्रकाश शर्मा और कर्नल रंजीत का भी पाठक हो गया. साथ साथ मैं पत्रिकायें भी पढ़ता रहा क्योंकि मेरी आंखों और दिमाग़ को तो पढ़ने का नशा था. पत्रिकाओं में मेरी कोई चॉयस नहीं थी. जो मिल जाये उसका एक एक अक्षर चाट जाता था. विज्ञापन तक पढ़ लिया करता था. एक अच्छी बात यह रही कि पढ़ाई में मां की सख़्ती के कारण मैं स्कूल की पढ़ाई में ठीक रहा (गणित को छोड़ कर). हाईस्कूल में गणित अनिवार्य थी और मैं सोचता था कि गणित में मैं पक्का फ़ेल हो जाऊंगा इसलिये जीवन भर हाई स्कूल से नहीं निकल सकूंगा लेकिन वह किस्सा फिर कभी कि मैं कैसे गणित के समुन्दर से पार हो गया और वह भी पहली ही बार में.
क्रमशः..............
 
(अगली किस्त अगली पोस्ट में)
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