बहुत छोटा था जब पहली बार शादी की बारात में जाने का सौभाग्य मिला, शायद छठवीं में था। बारात जाना मेरे लिए किसी टूर से कम नहीं था। लोग गांव वालों को बारात जाने का न्योता देने घर जाते, तो लोग उन्हें सम्मान से बैठाकर पूछ लेते थे कि कितने लोग जा सकते हैं। ज्यादा तगड़ी लगन होती, तो घर के लोग बंट कर सारी बारात में जाते थे।
उस समय शादी में विदाई नहीं होती थी। एक या तीन साल बाद गौना होता था, उसमें विदाई होती थी। शादी गर्मी में होती थी, क्योंकि किसान उस समय थोड़ी फुरसत में होते थे। बारात तीन दिन रुकती थी। मैंने सोचा तीन दिन रुके फिर भी दुल्हन नहीं लाए तो क्या फायदा, शादी में दूल्हा जाता और शादी करके गर्व से वापस खाली हाथ आ जाता।
उस समय बिजली नहीं थी, गैस के हंडे थे। किसी खाली खेत पर जाजिम बिछा कर कनात शामियाना लगाकर जनवासा बना देते थे, जिधर तीन दिन बाराती रहते थे।
जाने के बाद जनवासे में लड़की का बाप आता था कुछ लोगों के साथ, लड़के का बाप मुगले आजम के पृथ्वीराज कपूर की तरह बहुत अकड़ कर बैठा रहता था, जैसे लड़का नहीं पैदा किया हो ईरान जीतकर आया हो। मुर्गे की तरह छाती फुलाकर गर्दन अकड़ा कर लड़के का बाप लड़की के पिता को हीन दृष्टि से देखता था।
फिर दोनो पक्ष के पंडित बैठकर संस्कृत में शास्त्रार्थ करते थे। कोई गांव के लड़के तलाशे जाते थे जो संस्कृत विद्यालय में या कॉलेज में संस्कृत पढ़ते थे। वो दोनो झगड़े की तरह संस्कृत में वार्ता करते, सवाल जवाब, ये बारातियों के समझ में कुछ नहीं आता था, फिर भी मनोरंजन के लिए देखते थे। अगर लड़का वाला पंडित जीता, तो ही लड़के की शादी का कार्यक्रम आगे बढ़ता था। इसलिए जानबूझ कर लड़की के पक्ष का पंडित हार मान लेता और लड़के वाले पंडित को प्रणाम करके बोलता था आप श्रेष्ठ हैं। यदि लड़की के पक्ष का पंडित होशियारी दिखाता, तो लड़की के बाप चाचा रहते, जो अपने पंडित को धमका भी देते थे कि शादी होने दोगे की सारी विद्वता आज ही दिखा दोगे।
बाराती अपने पंडित के जीतने पर बल्लियों उछलने मैदान मार लिया। जबकि होता सब फिक्स था।
दिन भर खाते थे, रात को कोई नाच वाले आते थे या आल्हा ऊदल गाने वाले। हमारी बारात में जादूगर गया था, जो रात भर जादू दिखाता रहा।
जैसे ही बारात पहुंचे, तो पहले जल जलपान होता, दोने में लड्डू नमकीन बूंदी वगैरह, फिर चलता था रस, मतलब ड्रम में चीनी को पानी में घोल देते थे और बर्फ, केवड़ा जल डाल देते बन गया रस या शरबत, उसी को चार कुल्हड़ खींच देते थे, इसके उपरांत पान सुपारी सेवन।
रात के भोजन में कुम्हड़े की तरकारी, जिसमे छिलका बीज जाली सब को बड़े से कड़ाह में लकड़ी के कड़छूल से कुचल दिया जाता, नमक भी नहीं डालते थे वो अलग से देते थे। किस्मत हुई, तो कटहल या परवल की रसदार सब्जी भी मिल जाती। आम, गुड़ और सूखी मिर्च का एक मीठा अचार दिया जाता था, जो पूरी-कचौरी के साथ बेहद लुत्फ देता था।
दोने में पीसी हुई चीनी, कचौड़ी देते थे, जो आटे का सॉलिड पेड़ा होता था, जिसे तल देते थे और वो बेहद सख्त हो जाता था। उसमे कोई फिलिंग नहीं, बारातियों के मजबूत जबड़े उन कचौड़ियों के घमंड को चूर चूर कर देते थे। फिर पूरी मिलती एक फिट लंबी जिसे सोहारी बोलते थे। कचौड़ी को सब्जी के साथ और सोहारी को चीनी के साथ झोरते थे, सोहारी अक्सर कच्ची होती थी, सही सोहारी मिलने से बोलते थे बहुत सौकीन सोहारी है।
सुबह चाय और नाश्ते में गर्म जलेबी समोसे, जो वहीं हलवाई बनाते थे। दूसरे दिन दोपहर में कच्चा खाना बोलते थे, चावल दाल के साथ कोई सूखी सब्जी और सदा विद्यमान लड्डू।
दोपहर में बैठकर ताश खेलते जिसके नाम भी अजीब थे, जैसे दहला पकड़ या टोंटी नैन (29), खेलते चार या छै लोग थे, लेकिन आठ-दस लोग खड़े रहते थे, जो गौर से सबके पत्ते देख लेते थे, फिर उनकी कोशिश होती थी खेल बिगाड़ने की- गलत चाल चल दिए हो, खेल गए न रमचरना के हाथ से, अरे ये रमचरना दिखने भर में उल्लू है, मगर है बहुत घाघ। कई बार खिलाड़ी की जगह पीछे खड़े लोग खेलने लगते थे।
रात को फिर वो ही दंत-भंजक कचौड़ी, सोहारी, सब्जी, चीनी। तीसरे दिन सुबह फिर चाय लड्डू नमकीन और पकौड़े। इसके बाद ही बाराती घर जाते, खाने के गुण दोष की चर्चा मीमांसा करते हुए।
विदाई में सबको दस रुपया मिलता था। इस दस रुपए का लोभ और आकर्षण बहुत था। कभी बीस रुपए मिल जाते, तो दिल बाग बाग हो जाता था।
जो घर के लोग होते थे उन्हे पचास और समधी दामाद जैसे प्रतिष्ठित लोगों को और ज्यादा पैसे मिलते। दूल्हे उस समय सफारी सूट पहन कर खुद को प्रिंस चार्ल्स समझते थे। कोई कोई रात को भी फैशन के कारण काला चश्मा लगा लेते थे।
उस समय चमड़े के जूते चप्पल चलते थे, बारात जाने के लिए कोई अपने पड़ोसी से जूता मांगता कोई शर्ट, उधार में मांगते थे।
उस समय सियार बहुत होते थे, सियार और कुत्ते शादी के खाने की सुगंध से आकर्षित होकर आ जाते थे, थोड़ी दूर में छुपकर बैठे रहते थे,रात को कचरे से सियार और कुत्ते जूठे दोने पत्तल चाटते रहते थे,फिर आधी रात के बाद कुत्ते और सियार का सामूहिक गान का आरंभ होता,एक तरफ से सियार हुआ हुआ करते, दूसरे तरफ से कुत्ते ऊ ऊ ऊ का करुण गीत छेड़ देते थे,ये ऑर्केस्ट्रा रात भर जारी रहता था।
लोग चारपाई में सो जाते,जूते नीचे रख देते थे।
कई बार किसी के जूते या चप्पल सुबह नहीं मिलते थे, जो जूता पहने होता था और जिसके पास चप्पल नहीं होती थी वो उठकर किसी की भी सुख निद्रा में लीन बाराती के चप्पल पहन कर लोटा लेकर दिशा निवृत होने प्रकृति की सुषमा के बीच निकल जाता, कई बार बाराती को उस गांव के लोग चेतावनी देते थे कि उनके गांव के सियार बहुत कमीने जूताखोर हैं, अपना अपना जूता बहुत हिफाजत से रखिएगा।
दातौन भी काटकर करीने से कुल्हाड़ी से छांट कर बाराती को दी जाती, नीम की दातौन को दांत से चबाते हुए उस गांव के लोगों की बताई दिशा में निकल जाते थे, दातौन चबाते हुए और यत्र यत्र सर्वत्र थूकते हुए दैनिक क्रिया से निवृत होते, फिर कुएं आकर मिट्टी से लोटे को मांजते, मिट्टी से हाथ धोकर कुल्ला करते, दातौन को बीच से दांत से फाड़कर जीभ भी साफ कर लेते,इन सारी निजी क्रियाओं को बाराती सार्वजनिक रूप से करते थे।
दिशा मैदान में अगल बगल बैठे रहते बल्कि कोई नेक बंदा किसी बच्चे को सलाह भी दे देता था, कुर्ता समेट कर बैठो।
चुहल मजाक बुराइयां सब चलता था।
उस समय कोई दूल्हे के जूते नहीं चुराते थे।
दूल्हे को ट्रेनिंग देकर उसकी मां भेजती थी नहीं तो औरत लोग दूल्हे से कभी सिल बट्टे के बट्टे की पूजा करवा देती कुलदेव बोलकर, या दुल्हन का जूठा दूध या शरबत पिला देती थी, उसके बेचारे की मां बहन को लेकर मजाक करती थी, दूल्हे भी छोटे होते थे दसवीं नौवीं पढ़ने वाले, लड़की भी छोटी, उसको साड़ी चुनरी चादर से पूरी तरह से ढंक कर रखते थे, हवा भी नहीं लगना चाहिए ऐसा बोलते थे, मुझे लगता था रात भर में ये मर जायेगी, लेकिन सब जिंदा निकलती थी।
सुबह सुबह कोई देखता कि उसके जूते सियार ले गए और यदि वो मांगे के जूते होते, तो बेचारा बाराती बहुत दुखी हो जाता।गांव के लोग मजाक उड़ाते थे वो अलग।
ये बेचारा खड़ा रहता ये सोचते कि कितने रुपए का होगा ये बाटा का जूता।
कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे...
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भाग- 2
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