परीक्षाओं के समाप्त होने का सबसे बड़ा आकर्षण होता था घर में खुल्लम खुल्ला, ढिठाई से कॉमिक्स पढ़ने की छूट। अब स्कूल की किताबों के बीच कॉमिक्स छिपाकर पढ़ने की जरूरत नही। नागराज, शाकाल, फेंटम, चाचा चौधरी, बिल्लू, पिंकी, मोटू पतलू, राम रहीम, राजन इकबाल, अंगारा ,भोकाल, बांकेलाल ये नाम याद आते-आते इन कॉमिक्स के रंग-बिरंगे, चटकीले चित्रों से भरपूर कवर पेज याद आते जा रहे है।
कॉमिक्स के लिए “आकर्षण” शब्द बालमन के उस लालच की सटीक व्याख्या करने में थोड़ा सा नाकाफी है। लोभ, लालसा, चाहत, तड़फ थोड़ा आस-पास पहुँच रहे हैं के हम कॉमिक्स के लिए किस कदर दीवाने थे या जान छिड़कते थे। गर्मियों की छुट्टी शुरू होते ही गुल्लक में जमा सिक्कों की गिनती कर हिसाब लगाया जाता कि इसमें कितनी कॉमिक्स किराए पर आ पाएगी। घर के बुजुर्गों को कॉमिक्स में खर्च करना पैसों की बर्बादी लगती थी। कॉमिक्स का नाम सुनते ही अम्मा का बड़बड़ाना शुरू “..अभी उठा लाएंगी और दो मिनिट में पढ़ के खत्म फिर रद्दी में बेचने की। एक दिन के बाद इधर उधर पड़ी पड़ी दिखती है। बस अब नही मिलेंगे कॉमिक्स के लिए पैसे। जितनी छूट दो उतना सर चढ़ेगी। हमारे बचपने में जैसे चीज़ों के लिए तरसे होते, तो सामानों की कद्र होती।” अम्मा से कॉमिक्स किराए से लाने के पैसे तो न मिलते रख के चार गालियाँ और सुना देती। कभी कभी हम बच्चे मुँहजोरी की ठान कर नानी से भिड़ जाते- जाने हमसे ज्यादा न तरसी होंगी आप और कितना तरसी हो जो सारा फ्रस्ट्रेशन हम पे निकाल रही हो।
इन लम्बी ड्रामेबाज़ी में कभी कभार दो-चार रुपये मिल जाते थे। अच्छा आपको बताते हुए याद आ रहा है के तब मौहल्ले के छुटभैय्या नेता टाइप के बच्चे कॉमिक्स किराए से भी देने का काम करते थे। शायद 50 प्रतिशत लड़कों के जीवन का प्रथम व्यवसाय कॉमिक्स किराए से देना ही रहा होगा। तपती गर्मियों की लम्बी दोपहर जब घर के सारे बड़े कूलर में सोते होते, तब कॉमिक्स किराए से देने वाले भाई टाइप छोकरों के घरों के बरामदे में बच्चों की बड़ी चहल-पहल होती थी। किराए से कॉमिक्स लेते वक्त सीमित पैसे में सबसे ज्यादा मोटी कॉमिक्स ढूँढने के प्रयास होते। कॉमिक्स की गड्डियों को फैलाकर पूछताछ और मांग होती। साबू और दूसरे ग्रह के लुटेरे, चाचा चौधरी और मतरूलाल की कार, बिल्लू और राका की वापसी, पिंकी और सर्कस की सीढ़ी। कभी-कभी बिना कॉमिक्स लिए अपना सिक्का पकड़े बैरंग भी लौटते। वांछित कॉमिक्स पहले ही कोई ले जा चुका होता था या मोटी कॉमिक्स का किराया भी उन चंट लड़कों द्वारा ज्यादा रख दिया जाता। हाँ, तय वक़्त पर कॉमिक्स न लौटाई, तो वो मुए डबल किराया वसूलते थे। मुम्बई के हप्तावसूली वाले गुंडों ने बचपन में इसी धंधे से प्रैक्टिस की होगी। हम मुँह लटकाए घर लौटते और मन ही मन सोचते कि शायद कोई और दोस्त उस महँगी कॉमिक्स को किराए से लेगा, तो जब वो पढ़े, तो हम भी उसके साथ पास चिपके बैठ पढ़ लेंगे। ऐसा होता भी था कि एक कॉमिक्स दो लोग साथ साथ पढ़ते। हाँ, लेकिन जिसने पैसे दिए है कॉमिक्स के पेज उसी के इच्छा से पलटते। याचनाकर्ता पाठक पूरी मासूमियत से कंधे से कंधा चिपका कर इस सामूहिक पठन का आनंद उठाता ।
बहुत कम ऐसा होता था कि नयी कॉमिक्स खरीदने दुकान पहुँचते। दुकान में लटकती सारी कॉमिक्स तो खरीदी नही जा सकती थी । काउंटर पर फैली सभी कॉमिक्स में जो ज़रा मोटी लगती, जिसके कवर पेज में चाचा चौधरी अपनी काली जैकेट, लाल पगड़ी और पालतू कुत्ते रॉकेट के गले में बंधे पट्टे की चैन पकड़े जा रहे हो या फिर साबू गुंडों को अपने काले लम्बे लम्बे गम बूट्स वाले पैरो से हवा में फुटबॉल की तरह उछाल रहा हो— चुन ली जाती। एक बात बतानी बहुत जरूरी है कि साबू द्वारा गुंडों को इस तरह हवा में उड़ाने के क्रम में साबू के जूते की नोक पर “किक” शब्द गहरे काले रंग में लिखा होना जरुरी होता था। मानो किक न लिखा हो तो पाठक कही इसे साबू का प्यार न मान ले। साबू ज्यूपिटर ग्रह का निवासी था और उसे गुस्सा आने पर दूर कहीं ज्वालामुखी फटता था। कॉमिक्स के मवाली चरित्र और गुंडे आड़ी धारियों वाली टी शर्ट, गॉगल पहने, काले मस्से और गले में रुमाल बांधे गंजे सर वाले ही होते थे। सामान्यतः जब चन्नी चाची घर पर हो, तो दो चोर खिड़कियों से भीतर झाँकते थे। दुकान के काउंटर पर बिखरी मनोहारी चित्रों वाली कॉमिक्स में अपनी समझ से सबसे आकर्षक कॉमिक्स हम चुन लेते थे। दुकानदार को कीमत अदा करने, चिल्हर लौटाने, इस सब लेनदेन में लगे थोड़े से समय में भी दूसरी कॉमिक्स के दो चार पेज अलट-पलट सरसरी नजर डाल कर ही संतोष कर लेते। इस पन्ने उलटने पलटने के जरा से वक़्त में कॉमिक्स तो नही पढ़ पाते, मगर फिल्मों के 5 मिनिट के ट्रेलर वाला सुकून मिल जाता । घर आ दो मिनिट में कॉमिक्स पूरी पढ़ फिर मुँह उतार घुमने लगते। दोस्तों से कॉमिक्स की अदला-बदली भी गहरी दोस्ती या दुश्मनी का कारण बनती।
कॉमिक्स के किसी भी पेज़ के सबसे नीचे जितनी बार लिखा होता— “चाचा चौधरी का दिमाग कंप्यूटर से भी ज्यादा तेज़ चलता है” —हम उतनी बार इस ब्रहम वाक्य पर पूरी आस्था से यकीन करते थे । गोलू मोलू सी “चन्नी चाची” साड़ी पहने चलती कम, लुढ़कती ज्यादा लगती थी। चन्नी चाची साबू को खाने के लिए ऊँची रोटियों का ढेर देती, तो उनकी मेहनत का अनुमान लगा चित्र में रोटियाँ गिनते थे। जाने हम ही इतने ठल्ले बच्चे थे या आप भी ऐसे ही थे? बिल्लू की आँखे सदा बालों से ढकी रहती जिसे आज तक किसी ने नही देखी। हम कॉमिक्स में घुस कर बिल्लू की जुल्फे हटा उन सपनीली आँखों को देखना चाहते थे। बिल्लू के दोस्त गोल मटोल “गब्द्दु” के सामने बिल्लू एक तीक्ष्ण बुद्धि लड़का लगता था। जाने कितनी लड़कियों का पहला टीन ऐज क्रश था हमारा स्मार्ट बिल्लू । "फैंटम चलता फिरता प्रेत " पढ़ते पढ़ते ऐसा लगता था कि हम भी जंगल में सहायता के लिए जोर की आवाज़ देंगे तो फैंटम अपने पालतू डेविड भेड़िये के साथ आँखों में नकाब और बैंगनी चुस्त परिधान पहने सामने आ जाएगा । फैंटम की खूबसूरत पत्नी डायना जंगल में बने अपने मचान हाउस से लकड़ियों से बने बास्केट में चढ़ कर उससे लिफ्ट की तरह नीचे उतरती ।
भड़ाक, ...गुर्र्रर्र्र्रर्र्र, ....सुबुक सुबुक.., छपाक, ...बूम, किक, ढिशुम, चटाक, धड़ाम, बू हू हू, सर्रर्रर, हाहाहा, ठहाका, सुडुप-सुडुप, ये सारे शब्द मानव जीवन के “नवरस’’ की व्याख्या करने पर्याप्त थे। दो चरित्र यदि आपस में धीमे धीमे कुछ बात कर रहे हो तो पाठकों को पढ़ने मिलने वाला शब्द था “खुसुर पुसुर, खुसुर पुसुर।” पिंकी घेरदार छोटी फ्राक और हेयर बैंड पहने अपनी गिलहरी "कुटकुट" के साथ आस पड़ोस में उत्पात मचाए रहती। ..इन चरित्रों को पढ़ते-पढ़ते हम चित्र में बसाए छोटे से साफ सुथरी सड़कों वाले सपाट शहरों में साथ साथ घूमने लगते।
नागराज, सुपर कमांडो ध्रुव, डोगा, बांकेलाल ये लड़कों के सुपर स्टार हीरो थे ... after all boys are boys . they love action ..। .लड़कों वाली कॉमिक्स के नाम भी बड़े खतरनाक हुआ करते थे— “जहरीला बदला” .”नागराज की फुंफकार”, “राका की विनाशलीला”, “प्रलायनकारी मणि”, “खूनी कबीला”, “शाकाल की वापसी”— नाम लेते ही “जलजले” का अनुमान हो जाए और चित्र में क्रोध से लाल-पीले चीखते खतरनाक अजीब से चेहरे। इनके एक्शन किसी भी हॉलीवुड फ़िल्म के रोमांच को जीने जैसा होता था। इन मारधाड़ वाली कॉमिक्स के फ्रंट पेज पर आग, ब्लास्ट की भड़ाम और नुकीले दाँत वाला कोई विकराल चेहरा होता। आज भी याद है किसी कॉमिक्स के अंतिम पेज पे यदि समाप्त की जगह अधूरी कहानी छोड़ “क्रमशः” लिखा होता, तो खून खौल जाता था। जैसे किसी ने पूरे पैसे ले आधे रास्ते में उतार दिया, जैसे आम दिखा कर बेर खिला दिया, जैसे सोना बता पीतल थमा दिया। बिल्कुल “ठगा” जाने वाली फिलिंग आती। अब क्रमशः के आगे की कहानी मालूम करने के लिए नयी कॉमिक्स खरीदने के पैसे हम बच्चे कैसे मांगे। बहुत नाइंसाफी थी जी मासूम बच्चो के साथ। किसी भी बच्चे के पास कॉमिक्स की बढती संख्या “सम्पत्ति विस्तार” जैसा होता था । आज बच्चों को कॉमिक्स की इस मायावी दुनिया, रंगीन चित्रों के तिलिस्म, “सुबुक सुबुक” जैसे ध्वन्यात्मक शब्दों और कल्पनाशीलता के नशे का जादू पता ही नही है। आज का बचपन सोफे पर मोबाइल, प्ले स्टेशन, टैब में गेम खेलते निष्क्रिय खामोश बैठा मिलता है। कॉमिक्स की समृद्ध विरासत सैमसंग और गैलेक्सी के वज़न के नीचे दम तोड़ रही है। हिंदी कॉमिक्स के इन अजर अमर चरित्र को बेचने वाले दुकानदार पिछले सालो में आई बिक्री में गिरावट से हतप्रभ है। कॉमिक्स पढ़ना वास्तव में बच्चो की कल्पनाशक्ति, अध्ययनशीलता, एकाग्रता, रचनाधर्मिता और सृजनात्मकता को बढ़ाने सबसे बढ़िया टॉनिक है। कोमा में जाती इन भारतीय कॉमिक चरित्रों को बच्चो की नर्म उंगलियों के स्पर्श के आक्सिज़न की जरुरत है। छोटे बच्चों को चाचा के घर के रॉकेट की “भौं-भौं” से परिचित करवाइए, गुंडे मतलब आड़ी धारियों वाली टीशर्ट का गूढ़ ज्ञान दीजिये ...कुल जमा अपने बच्चों के बचपन को एक बार फिर बचपन जितना ही भोला बना कॉमिक्स की “सपनीली दुनिया” की सैर करवाइए।
लौट के फिर कभी न आने वाले उन दिनों की सुनहली यादें दोस्तों के साथ साझा कर उन्हें भी बचपन की गलियों में हाथों में कॉमिक्स पकड़े घुमा लाइये। आज "विश्व पुस्तक दिवस" के अवसर पर हर बच्चे की पहली पसन्दीदा किताब की स्मृतियों के साथ किताब प्रेमियों के लिए...
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MADHU -writer at fim association MUMBAI
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