Saturday 24 February 2024

"सावन के झूले" —प्रशान्त द्विवेदी

 


"झलुआ बंद कर बनवारी हम घर जाबै मारी न..."

 हमारे बचपन का सावन ऐसे ही आता। सावन लगते ही किसी पेड़ की किसी डाल पर झलुआ (झूला) डाला जाता। सामान्यतया किस पेड़ की किस डाल पर झूला पड़ेगा, यह पहले से ही तय होता। हर साल उसी पेड़ की उसी डाल पर झूला पड़ता। इसके लिए आम या नीम-जैसे किसी मज़बूत पेड़ की कोई मज़बूत डाल चुनी जाती। और क्योंकि आम-नीम के पेड़ घर-घर द्वार-द्वार मिल जाते, तो कहीं दूर भी न जाना पड़ता। झूला के लिए कोई हेंगा (पाटा) चुना जाता, या फिर कोई मज़बूत पटरा। कुछ पुराने बेकार टायर, 12-15 फ़ीट तक के कच्चे हरे बाँस और मोटे रस्से या बरारी। ऊँची डाल पर झूला डालने के पहले, झूला डालने वाला उस पेड़ पर चढ़कर, उस डाल पर एक मोटा सा जूट का बोरा रख देता और उसके ऊपर से झूले का रस्सा/टायर गुज़ारा जाता, जिससे कि डाल के घर्षण से रस्सा/टायर ज़ल्दी कटे न। इतना सब प्रयोजन के बाद जब झूला बनता, तो वो बहुत शानदार होता। इसके हेंगा/पटरा पर एक साथ 4-5-6 लोग बैठते और दोनों किनारों से दो लोग पेंग मारते। झूला स्टार्ट करने के पहले एक सिरे को पकड़ कर कोई आगे-पीछे दौड़ता। इसे "झुलौनी" देना कहते। एक तरह से यह झूले को गति/लय प्रदान करने के लिए "दोलन" होता। जब झूले को गति मिल जाती, तो दौड़ने वाला व्यक्ति कूद कर अपने सिरे पर चढ़ जाता और दोनों घुटने मोड़ कर हुमुक कर ज़ोरदार पेंग मारता। यही काम दूसरे सिरे पर खड़ा व्यक्ति करता। 2-4 मिनट में ही झूला आसमान से बातें करने लगता। और सच में झूलने के दौरान एक पल ऐसा आता कि जब पूरा का पूरा हेंगा/पटरा खड़ा (वर्टिकल) हो जाता।

एक कविता की पंक्तियां याद आतीं,

"आओ मिलकर झूला झूलें,

पेंग बढ़ाकर नभ को छू लें"

झूले पर बैठी हुईं दीदी, बहिनी फूआ लोगों में से कोई कजरी के बोल कढ़ाता (यानी शुरुआत करता), बाक़ी उन्हीं में से कोई उसे पुरवाता (अर्थात आगे की लाइन गाता)।

ऐसी ही एक कजरी आज तक याद है,

"झलुआ बंद कर बनवारी हम घर जाबै मारी न..."

(गोपिकाएं झूला झूल रही हैं, किसना उन्हें झुला रहे हैं। काफ़ी देर हो गयी है, किसना झूला बंद नहीं कर रहे। गोपिकाएं उनसे उलाहना देते हुए ग़ुज़ारिश कर रही हैं: हे बनवारी अब झूला बंद कर दो, अब देर हो गई है। घर जाने दो नहीं तो घर पहुँच कर डाँट-मार पड़ेगी।)

ख़ैर, जब झूला अपने चरम पर होता, तो सबसे ऊँचाई वाले बिंदु पर पहुँच कर जब नीचे आने लगता, तो लगता कि शरीर से कुछ निकल गया। जिउ सुरुक जाता। वास्तव में वेटलेसनेस (भारहीनता) का जीवन में पहला अनुभव यही था।

अब बड़ी हिम्मत वाले लोग ही झूले पर टिक पाते।

कमज़ोर दिल के लोग, या फिर ऊँचाई से डरने वाले भाई-बंधू, दीदी, बहिनी, फूआ लोगों में से कोई चिल्लाने लगता, "हे हे हम्मै उतारा, हम्मै उतारा। मूड़ घूमत बा। उलटी आवत बा..."

झूला रोककर उसे उतार दिया जाता। वह सर पकड़ कर बैठ जाता। कभी-कभी कोई उलटी भी कर देता और कसम खाता, "राम जाने-गङ्गा जाने, अब कभ्भों न बईठब झलुआ पै..."

फिर उसकी जगह कोई और ले लेता।

सावन लगते ही शुरू हुआ यह झूला नाग पंचमी, तीज, रक्षा बंधन, छट्ठ, जन्माष्टमी तक चलता।

अब वो दिन नहीं रहे। न झूला डालने वाले वो लोग हैं, न झूलने वाले और न ही वो पेड़। वो रोमांच और आनंद अब 100-50 फ़ीट ऊँचे फ्लाई-व्हील में भी नहीं आता।

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